हरा पत्ता, पीला पत्ता

हंसा दीप

 

 

क्या कहा जाए जब कहने को कुछ बचता ही नहीं। ज़िंदगी के तमाम दिन आँखों के सामने जुगाली करते रहते हैं। एक के बाद एक, हर दिन सामने आता है और बस झलक दिखला कर चला जाता है। एक असहाय और बेबस बूढ़े की कहानी बहुत ही आसानी से समझ में आती है। तब और भी जल्दी समझ में आती है जब अपना स्वयं का हट्टा-कट्टा शरीर धीरे-धीरे बूढ़ा होने लगता है। ऐसा ही कुछ हुआ उनके साथ भी। अपने जमाने के जाने-माने कॉर्डियोलॉजिस्ट, डॉक्टर एडम मिलर। लोगों के दिल से दिल तक पहुँच कर चीर-फाड़ करने वाले। नये दिल से नये जोश को भरने वाले, जीवन से हारे हुए लोगों को नया जीवन देने वाले।

वे दिन लद गए अब। कभी कुछ सदा के लिये टिकता नहीं। अपनी सफलताओं की आँधी में कब उनका शरीर भी उम्र के अंधड़ में झड़ गया, पता ही नहीं चला। जितनी अधिक व्यस्तताएँ थीं, उतना ही अधिक खालीपन भर गया। मानो होड़ लगी हो जीवन के व्यस्त दिनों में और खाली दिनों में कि कौन डॉ. मिलर के साथ अधिक वक़्त बिताएगा। 

अब तो बस रह गया एक अकेला ठूँठ सा आदमी, न काम का, न काज का। इन दिनों शरीर के उर्जे-पुर्जे कुछ ज्यादा ही ढीले हो गए थे। शरीर जैसे हड्डियों का ढाँचा रह गया था। लगता था जैसे हड्डियों से किसी ने माँस निचोड़ कर अलग कर दिया हो। ठीक वैसे ही जैसे किसी गीले कपड़े को निचोड़ कर सलवटों के साथ सुखाने के लिये डाल दिया गया हो, पलंग के चार पायों के बीच में। अपनी हथेलियों के पीछे देखते तो पच्चीस-पचास हरी-काली नसें ऐसी दिखतीं मानो कि अंदर का पूरा बियाबान नज़ारा बाहर आकर अपनी ख़िलाफ़त पेश कर रहा हो। माँस के लटकते पोपड़े अंदर की हक़ीकत को बयान कर रहे थे, जहाँ एक जमाने की हरी-भरी सल्तनत किसी खंडहर के पथरीले ढेर में बदल गयी थी। खंडहर भी ऐसे खंड-खंड थे, जो ईंट-ईंट की कहानी कह रहे थे।

जीवन के कई सफल मोड़ देख चुके डॉ. मिलर अब असहाय हैं, बिस्तर पर हैं, बमुश्किल अपनी दिनचर्या के लिये अपने शरीर को ढोते हुए बाथरूम तक जा पाते हैं। एक ही परेशानी नहीं है कि उसे भूल जाएँ, पूरा का पूरा अंबार लगा है परेशानियों का। खाँसी आती है तो बंद ही नहीं होती जैसे अंदर से ज्वार-भाटा भभक-भभक कर चेतावनी दे रहा हो कि “अब तो इस आग में जल मरोगे।” नाक बहती तो जैसे अंदर किसी नदी का उद्गम हुआ हो वैसे ही उछाल मार-मार कर बाहर आती। “छीं-छीं” करते रहते, “सड़ड़-सड़ड़” आवाज होती तो आसपास से गुजरते घर वालों की नाक-भौंह ऐसी सिकुड़तीं गोया बूढ़ा होकर उन्होंने कोई अपराध कर दिया हो। हर एक घंटे में पास रखी डस्टबीन पूरी भर जाती। टिशू के डिब्बे खाली होते रहते पर उस छोटी-सी नाक का स्टॉक खत्म ही नहीं होता। आइने में शक्ल देखने का दुस्साहस नहीं कर पाते। वही तस्वीर जेहन में रखना चाहते थे जो उनकी पहचान थी, पोस्टरों पर रहती थी, पावर पॉइंट की स्लाइड्स पर रहती थी, मरीजों की आँखों में रहती थी, सुप्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. एडम मिलर के मुस्कुराते चेहरे के साथ।

ताउम्र हज़ारों मरीजों के शरीर पर रोगों के आक्रमणों को रोकते रहे वे पर अपनी बढ़ती उम्र को रोक नहीं पाए। अपनी बुझती शमा को देखते हुए हर दिन नींद आने से पहले यह सोचते– “शायद आज की रात आखिरी रात हो।” और उठते हुए भी यही सोचते– “शायद यह जीवन की आखिरी सुबह हो।” लेकिन रातें अड़ियल विचारों की तरह आती रहीं और सुबहें भी बिन बुलाए रोज़ खिड़की से भीतर झाँकती रहीं। दिन भी निकल जाता, रात भी निकल जाती। एक और दिन मुँह बाए खड़ा होता उनके सामने, पहाड़-सा दिन, पल-पल काटे नहीं कटता।

इस मन की हार के चलते एक दिन उनके सामने एक विचित्र प्रस्ताव आया। पास वाले फ्लैट में एक छोटा बच्चा रहता था। साल भर का होगा। इससे ज़्यादा भी नहीं था, न ही कम था। उसकी मम्मी अभी भी मैटरनिटी लीव पर थी। मम्मी की समस्या यह थी कि जब वह नहाने के लिये जाती तो उसके बच्चे को देखने वाला कोई नहीं था। एक दो बार उसे सुला कर नहाने गयी थी तो वह बीच में ही इतनी जोर से चिल्लाया था कि बेचारी को बहते पानी के साथ बाहर आना पड़ा था।

यही नहीं उसने एक अखबार में पढ़ा था कि एक बार न्यूजर्सी में एक बच्चे की बेबी सीटिंग कर रही दादी उसे छोड़ कर नहाने गयी तो बच्चा इस कदर रोया कि पड़ोसियों ने पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस आयी और अकेले बच्चे को रोते देखकर दरवाजे को तोड़कर अंदर जाने की कोशिश करने लगी। शोरगुल सुनकर जब दादी बाथरूम से बाहर निकली तो देखा कि रोते बच्चे को बाहर जाली से झाँकते दो पुलिस वाले चुप कराने का प्रयास कर रहे थे। वह घटना मम्मी अपने घर में दोहराना नहीं चाहती थी। उसे इसका उपाय सूझा कि पास वाले अंकल मिलर तो पलंग पर ही रहते हैं अगर वे उसे थोड़ी देर देख लें तो वह शांति से नहाकर वापस आ सकती है। कुछ रोजमर्रा के जरूरी काम निपटा सकती है। नहाने के बहाने के साथ अपने लिये थोड़ा सा समय चुरा सकती है।

इसके अलावा जल्द ही उसे काम पर वापस जाना होगा तो बच्चे को डे-केयर में रहने की थोड़ी आदत हो जाएगी। साल भर से दिन-रात माँ के साथ है और अब तो वैसे भी माँ के आँचल में रहने का समय खत्म होने ही वाला है। अनजान लोगों के साथ समय बिताना उसे सीखना ही होगा। ऐसे कई ख्यालों का एक ही हल नज़र आया था उसे, अंकल मिलर।

इसी ऊहापोह में अपनी इस छोटी-सी बात को मम्मी ने अंकल मिलर के सामने रखा। उन्होंने तत्काल मना कर दिया– “नहीं बिल्कुल नहीं” अपनी असहाय स्थिति का जिक्र किया– “खुद को तो सम्हाल नहीं पाता, बच्चे को कैसे सम्हालूँगा!”

“आपको कुछ नहीं करना है। मैं उसे उसके स्ट्रोलर में बैठाकर छोड़ दूँगी। बेल्ट से बंधा रहेगा वह, गिरने का भी डर नहीं रहेगा।”

“और अगर वह रोने लगा तो?”

“कोई आसपास नहीं दिखता है तो रोता है वह, आप सामने रहेंगे तो नहीं रोएगा।”

“अच्छा!” वे आश्वस्त नहीं हो पाए यह सुनकर। अचंभित-से उसे देखते हुए बच्चे को यहाँ न छोड़ने का कोई कारण खोजने लगे। 

मम्मी भी शायद तय करके आयी थी कि एक बार तो कोशिश करके देखा ही जाए। अगर घंटे भर की राहत मिल जाए तो फिर से तरोताजा होकर कई काम कर सकती है। कहने लगी- “बस अगर थोड़ा बेचैन होने लगे तो उसे झुनझुने से खिलाएँ या बात करें ताकि उसे कम से कम यह न लगे कि वह अकेला है और चिल्ला-चिल्ला कर रोने न लगे।”

अंकल मिलर ने सोचा इतना तो वे कर ही सकते हैं। एक कोशिश करने में क्या बिगड़ता है। अगर बच्चा रोएगा तो फिर तो बात वहीं खत्म हो जाएगी। तो शुरू हुआ यह सिलसिला। पहले एक-दो दिन तो वह सो गया लेकिन उसके बाद वह उन्हें ध्यान से देखता, देख कर कभी हँसता तो कभी बात करने की कोशिश करता, लेकिन एक बार भी रोया नहीं। 

वह रोज़ आने लगा। धीरे-धीरे खेलने के लिये वह उनमें साथी ढूँढने लगा। कभी “पीक-ए-बू” करता तो कभी उनके हाथों में अपना हाथ देकर कुछ “गुटर-गूँ” करता। हर बार कुछ कहते हुए किलकारियों से कमरा गूँजा देता। सन्नाटों के बीच उस बच्चे की आवाज वैसी ही थी जैसे भयंकर सूखे के बाद धरती ने बरसती बूँदों का आस्वादन किया हो। “हाइ-फाइव” के लिये वे हाथ पास ले जाते तो वह भी वैसे ही नाटकीय अंदाज में “हाइ-फाइव” करता, उसी प्रक्रिया को दोहराता। हथेली से हथेली का स्पर्श अंदर तक महसूस होता, कुछ देते हुए, कुछ लेते हुए। शब्द उसकी जबान पर होते पर आकार नहीं ले पाते लेकिन वह अस्फुट स्वर में कुछ कहने की कोशिश करता रहता। ऐसा लगता जैसे आपबीती सुना रहा हो- आज की, कल की और उन सब दिनों की जो उसे याद आते, जो उसकी स्मृति में थे। 

संवाद स्थापित करने के सारे प्रयास उसकी ओर से होते। वे कब तक चुप रहते, कब तक अपनी चुप्पी को ओढ़े रहते। एक ओर जहाँ उनके दिमाग में चिकित्सा की किताबों के कई पन्ने भरे हुए थे, कई थीसिस लिखी जा चुकी थीं, किताबें और शोध-पत्र लिखे जा चुके थे तो वहीं उस बच्चे को अभी “ए-बी-सी-डी” सीखनी थी। एक के पास जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों की थाती थी तो दूसरे के पास यह पहला अनुभव था, घर से बाहर जाकर कुछ सीखने का, कुछ बताने का। एक वह था जो दुनिया को देखना शुरू कर रहा था और एक वे थे, जो बहुत कुछ देख चुके थे।

आखिरकार वे भी बोलने लगे। अपनी ओर से कुछ बोलते-कहते-समझाते। वह मस्ती में आवाज़ निकालता तो वे कहते – “तुम भी वहाँ कैद हो मैं भी यहाँ कैद हूँ।”

हूँ-हूँ-कूँ...!

आजादी नहीं है हम दोनों को। तुम्हें मिल नहीं सकती और मेरी आजादी सिमट गयी है इस चारपाई में।”

वह भी कहता बहुत कुछ– “आ-आ-ए-ए”। हर आवाज के साथ उसके हाथ भी हिलते, आँखें बोलतीं, अंदर से मन की आवाज़ बाहर आकर समझाती। बगैर शब्दों के दिल की बात कही जाती। वे अनकहे शब्दों के अर्थ समझ लेते। जवाब में वे भी बड़ी-बड़ी बातें कहते, जो उसके लिये “आ-आ-ए-ए” जैसी ही थीं पर उसकी आँखें स्वीकारतीं, सब कुछ समझ लेने का आश्वासन देतीं।

वे कहते जाते - “बेटा, छोटा रहना ही अच्छा है, बड़े मत होना।”

अपनी गहन समझदारी उस पर थोपना चाहते तो वह सिर हिलाता, इनकार करता जैसे कह रहा हो- “मैं बड़ा होना चाहता हूँ। इस कैद से बाहर जाना चाहता हूँ, लेकिन तुम तो बड़े हो, तुम यहाँ क्यों हो?

“मैं यहाँ नहीं हूँ बच्चे, मैं तो कहीं भी नहीं हूँ।” वे अपने बेचारेपन को बाहर आने से रोक नहीं पाते।

“पर मैं तो तुम्हें देख रहा हूँ, तुम यहाँ हो, यहीं तो हो मेरे सामने।”

“तुम जिसे देख रहे हो वह मैं नहीं हूँ, मैं तो डॉ. एडम मिलर था, अब नहीं हूँ।

“नाम में क्या रखा है! तुम, तुम हो। मैं, मैं हूँ।”

“हाँ, लेकिन मैं न चल सकता हूँ, न मरीजों को देखने जा सकता हूँ।”

“तुम चलते थे? मैं भी चलना चाहता हूँ, दौड़ना चाहता हूँ, तुम मुझे सिखाओगे?

“हाँ, सिखाता जरूर, लेकिन मैं इस कैद से बाहर आ नहीं सकता बच्चे।”

“अच्छा कोई बात नहीं, मुझे बोलना सिखा दो। मैं बोलना चाहता हूँ पर बोल नहीं पा रहा, शब्द नहीं हैं मेरे पास।”

“हाँ, मैं तुम्हें बोलना सिखा सकता हूँ क्योंकि मैं बोल सकता हूँ। मेरे पास बहुत शब्द हैं पर सच कहूँ तुम्हें, मेरी बोलने की इच्छा ही नहीं होती। तुम तो बिना शब्दों के ही बोल रहे हो बहुत कुछ।”

“मेरी तो बहुत इच्छा होती है बोलने की। ऐसा कैसे हो सकता है कि बोलना आता हो पर इच्छा नहीं हो रही बोलने की तो मत बोलो।”

“ऐसा तब होता है जब तुम बहुत बोल लेते हो और एक दिन तुम्हें सुनने वाला कोई नहीं होता। तब चुप रहने में ही भलाई नज़र आती है।” वे अपने होठों को सिल कर ताला लगाने की मुद्रा में चाबी को फेंकने का उपक्रम करते हैं।

वह अनायास ही हँस पड़ता है। शायद कहता है- “तुम कैसी बातें करते हो। तुम बहुत फनी हो!” वह हँसता है, दिल खोलकर हँसता है।

और फिर जोर लगाता है। इतना जोर लगाने से उसका मुँह फैल जाता है। हर कोई ऐसे ही मुँह फैलाता है जब अपने पेट की सफाई हो रही हो। जोर से पू-पड़ड़ड़-पड़ड़ आवाज़ आती है– “तुमने पोटी कर दी?”

“हा-हा-हा-हा, देखो मैं पोटी करके भी हँसता हूँ।” वह हँसता है बहुत जोर से, किलकते हुए ऐसी निश्छल हँसी जो उन्हें खुश कर देती है।

वे भी दिल खोल कर हँसते हैं– “शैतान, देखो पोटी करके हँस रहा है!”

वे जबान निकालते हैं– “गंदी बात” कहकर, तो वह भी वैसे ही करता है। अपनी छोटी-सी बित्ते भर की जबान को खींचतान करके बाहर ले आता है। “गंदी बात” के साथ उसकी नाक सिकुड़ती है और वह फिर हँसता है। वे नाक सिड़कते हैं तो वह भी नाक को मलते हुए आवाज निकालता है। वे खाँसते हैं तो वह भी “खुड़-खुड़” करता है।

“देखो तुम नकल उतार रहे हो, नकलची बंदर!”

वह भी हाथों को सिर तक ले जाकर दोहराता है “नकलची बंदर!”

दोनों की आँखों से बातें हो रही हैं। दोनों हँस रहे हैं। शब्दों की बहुलता और शब्दों की अनभिज्ञता दोनों मिलकर एक संवाद स्थापित कर लेते हैं। उन्हें अच्छा लगता है। “मैं, मैं हूँ। तुम, तुम हो” सुनना सुकून भरा था। अपने नाम के मोह से बाहर निकलने की कोशिश में खिड़की से बाहर का आकाश बहुत दिनों में दिखाई देता है। उनके अंदर का सारा ज्ञान उछाल मारने लगता है– “मैं तुम्हें मेडिकल साइंस की बहुत सारी बातें बताऊँगा।”

वह सिर हिलाता है। ऐसे, जैसे गंभीर बातें सुनने के लिये खुद को तैयार कर रहा हो। लेकिन इस समय आगे की गहन चर्चा से वह बच जाता है क्योंकि उसकी मम्मी आती है और उसे ले जाती है। वह जाना नहीं चाहता। “बाय” कहते हुए पलट-पलट कर देखता है।

“कल फिर आना।”

“थैंक यू अंकल मिलर।” मम्मी के लिये यह बड़ी मदद थी। यह समय का वह हिस्सा था जो उसके लिये एक अमूल्य तोहफा था वरना रोज़ बच्चे की चिल्लपों में खुद के लिये कुछ समय चुराना भी मुश्किल था।

अब उन्हें कल का इंतजार है। ठीक उसी समय फिर से मम्मी आती है व उसे छोड़ जाती है। वे दोनों बेहद खुश हैं। दोनों हँस रहे हैं। इस दोस्ती ने उन्हें ताकत दी है। वे उठने लगे हैं। चलने लगे हैं। इतने दिनों तक जो पैर जमीन छूने से कतराते थे, पलंग में धँसे रहते थे वे अब जमीन पर हैं, हरकत में हैं। खाँसी तो अब भी आती है पर किसी आग में जल मरने का संकेत देते हुए नहीं बल्कि एक शरीर की आवश्यक आवश्यकता के साथ। नाक का आवेग भी अब उनके नियंत्रण में है। पैरों की बढ़ती ताकत शरीर का सारा भार अपने ऊपर लेकर संतुलन बना रही है।

एक दिन हाथों ने भी पैरों का अनुसरण किया। उसे स्ट्रोलर से निकाल कर चलाने लगे। अब दोनों स्वतंत्र थे। दोनों निरीह नहीं थे अब। एक-दूसरे को समझने लगे थे। एक-दूसरे की सामर्थ्य को अपनी ताकत बना रहे थे। एक घेरा शून्य का था जिससे वे अपने नंबर बनाने लगे थे। किसने, किसको चलना सिखाया यह प्रश्न कतई नहीं था, प्रश्न तो यह था कि किसने जल्दी सीखा। दोनों ने एक दूसरे को चलना ही नहीं सिखाया बल्कि हर ठोकर पर हाथ थामना भी सिखाया।

उनकी यह दोस्ती उन दो इंसानों की दोस्ती है जो हमराज़ हैं, रोज़ मिलते हैं, बातें करते हैं, एक दूसरे से सीखते हैं बहुत कुछ। ऐसे दोस्त हैं जो हँसते बहुत हैं, छोटी-छोटी बातों पर ठहाके लगाते हैं। जब कुछ नया करते हैं तो भी हँसते हैं और जब कुछ नहीं कर पाते हैं तो और भी दिल खोल कर हँसते हैं। वह हँसी जो सारी दुनिया के बोझ को हल्का कर देती है, वह हँसी जो अपनी असमर्थता को स्वीकार करने में मदद करती है, वही हँसी जो रास्तों की रुकावटों से जूझ कर गिरते-पड़ते उठने का साहस देती है। उम्र के अंकों से परे दो शिशु या फिर दो वयस्क। 

हरे पत्ते और पीले पत्ते की जुगलबंदी ने एक नये रंग को जन्म दे दिया था जो सिर्फ खुशियों का रंग था, एक अपनी हरीतिमा पर खुश और एक अपनी पीलिमा पर।

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