हंसा दीप के उपन्यासों पर पुस्तक

दीपक पांडेय, नूतन पांडेय

"ख्यालों और सपनों की यह दौड़ दूर तलक जाती। इतनी दूर कि शायद इन सपनों की ऊँचाइयाँ टोरंटो के सी एन टावर की ऊँचाइयों को छूतीं। टोरंटो की पहचान, सी एन टावर! जब भी तान्या सी एन टावर को देखती एक फुरफुरी-सी दौड़ने लगती शरीर में। किसी भी शहर का पहचान चिन्ह, चाहे वह कोई खास इमारत हो या स्मारक, अपने आप में एक खासियत लिए, उस शहर की पहचान बन जाता है। शहर का ऐसा खास स्थान, जिसे देखकर लगता है कि उसके बगैर शहर अधूरा है। शहर को महसूस करने के लिए, उस स्थान को अपने में समेटना होता है। तभी हो पाती है उस शहर से एक खास जान-पहचान, एक खास दोस्ती जो उस शहर को दिल के करीब लाती है।"

"तान्या को बहुत अच्छा लगता है, जब शहर के बीचों-बीच डाउन टाऊन की सड़कों पर घूमते हुए, हर गली-चौराहे पर सी एन टावर झाँकता हुआ दिखाई देता है। तब जुड़ता है उससे रिश्ता, शहर से रिश्ता, एक अपनेपन का अहसास। शहर की ऊँचाइयों का अहसास। ऐसा शहर जो सिर्फ सी एन टावर की ऊँचाइयों से नहीं पहचाना जाता बल्कि हर क्षेत्र में उस ऊँचाई को छूता नज़र आता है। किसी भी शहर में सिर्फ घूमना और रहना उस शहर को अपना नहीं बनाता, उसे अपना बनाने के लिए उसे महसूस करना पड़ता है। और तान्या अब टोरंटो को अपना बना रही थी, महसूस कर रही थी, एक रिश्ता जोड़ते हुए।" 

(इसी उपन्यास से) 

"कहते हैं रणभूमि में लड़े जाने से पहले युद्ध दिमाग़ में लड़ लिया जाता है। ठीक वैसे ही बाज़ार में पैसा लगा कर धंधा करने से पहले दिमाग़ में धंधा कर लिया जाता है। सारा हिसाब-किताब, सारी जोड़-तोड़ पहले ही हो जाती है। यही हुआ। पहले दिमाग़ में और फिर कागज़ पर योजनाएँ बनती रहीं, पनपती रहीं। किसी प्रकार की शीघ्रता की कोई आवश्यकता नहीं थी। न्यूयॉर्क जैसे महानगर ने पैदल चलने से पहले घुटनों के बल आगे बढ़ना सिखाया था। दौड़ने से पहले ठीक से चलना सिखाया था।" 

"ऐसी बुद्धि जो कृत्रिम कही जा सकती है जिसमें मनुष्य के मस्तिष्क की भांति सोचने और समझने की क्षमता हो। ठीक वैसे ही जैसे हमने कम्प्यूर को इतना समझदार बना दिया है, ड्रॉन बना दिए हैं, रोबॉट बना दिए हैं, ऐसे ऐप बना दिए हैं जो हर तरह से हमारी मदद करते हैं। बगैर ड्राइवर के चलने वाली गाड़ियाँ बना दी हैं। ऐसी संगणक प्रोग्रामिंग को उन्हीं तर्कों के आधार पर चलाने का प्रयास करते हैं जैसे एक मनुष्य का मस्तिष्क चलता है। हमारे कई प्रयोग कारगर हुए हैं और कई हो रहे हैं। जीपीएस जब चलता है तो एक गलत रास्ता पकड़ने पर तुरंत कहा जाता है कि – “आप यू टर्न लीजिए” और यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह मानव के मस्तिष्क से ही बनायी हुई डिवाइस उससे भी बेहतर काम करती है। इस तरह एक नहीं अनेक क्षेत्रों में हमारे मस्तिष्क ने ऐसे कई छोटे-छोटे मस्तिष्क बना दिए हैं जो बटन दबाते ही मदद के लिए तत्पर रहते हैं।”

(इसी उपन्यास से)

"हवा तो हवा है, कब तक एक दिशा में बह सकती है। पता ही नहीं चल पाया कि ऐशो-आराम के सुकून में बहती हवा के झोंके विपरीत दिशा में जाने को आतुर कब हो गए, किसी अंधड़ की तैयारी करते हुए मानों अहंकार में डूबे वे झोंके मदमस्त हो गए हों। अपने सामने हर किसी को बौना करते, झूमते आगे बढ़ते रहे, धीमे-धीमे। वह तूफानी संकेत बाली के जीवन को निशाना बनाता गया, सामने आकर, तबाह करने की चेतावनी देता वह आवेग अपनी मनमानी के नशे में था।" 

"प्यार के ढाई अक्षर के ढाई सौ मतलब निकालते थे वे दोनों मिलकर, क्या उनमें से कोई एक अक्षर भी आकर उसे छेड़ता नहीं होगा, हैरान होती रहती वह।" 

"एक चादर की मानिंद, चारों छोरों से अपने घर को धूप-हवा से बचाने की कोशिश करती रही धानी। चादर मैली भी होती है, चादर में छेद भी होते हैं, चादर का रंग धुंधला भी होता है, तो भी चादर के चार किनारे तो होते ही हैं जो चारों तरफ से ढँकने का काम करते हैं, फिर चाहे वह बिस्तर हो या शरीर।"

(इसी उपन्यास से)

काँच के घर (उपन्यास): हंसा दीप

जीवंत, खिलंदड़ी भाषा में लिखा गया यह उपन्यास आत्ममुग्ध लेखकों की अजीबोगरीब हरकतों के साथ ही कोरोना काल में शुरू हुए लाइव के अनंत सिलसिले पर व्यंगात्मक प्रहार करता है।                     समालोचन पत्रिका  

धांधली शब्द ने कई लोगों के कानों में जैसे सीसा उड़ेल दिया और कई चेहरों पर सवाल खड़े कर दिए। आँखें, भौंहें, होंठ और नाक ने प्रश्नवाचक चिह्न के सारे घुमाव अपने ऊपर ले लिए। इस शब्द को खोज कर इसकी तह तक पहुँचने के लिए सारे आतुर हो चले। एक गया, दूसरा गया फिर बैक स्टेज लाइन लगने लगी। जो भी स्टेज के सामने बैठे थे उनका धैर्य जवाब दे गया। उन्हें लगा कि बैक स्टेज से अलग से सम्मान दिए जा रहे हैं। पीछे के दरवाजे से मिलने वाले लाभों से कहीं वे वंचित न रह जाएँ इस आशंका से वे सब उठ-उठकर जाने लगे।"

"हर साल यह सामने लगा लाल पत्तों वाला पेड़ ही कितने रूप बदल लेता है। गर्मी के दिनों में कभी रंगीली पत्तियाँ ऐसी दिखती हैं जैसे अभी-अभी रंगरेज ने अलग-अलग रंगों में डुबाकर सूखने के लिए टाँग दिया हो। सर्दी के पहले झर-झर ऐसे झर जाती हैं मानो धरती की पुकार है कि सारे पत्ते मुझे दे दो। सर्दियों में बाँझ होकर शाखाएँ बर्फ का बोझ सहन करती हैं। कड़कड़ाती ठंड को झेलते अपने ऊपर बर्फ को थामे झुकी रहती हैं। ठंड का प्रकोप कम होते ही सारी बर्फ तरल हो कर उतर जाती है। तब ये नया चोला पहन कर फिर से लदने लगती हैं। अपना साज-सिंगार करते हुए इठलाती हैं।"

"नानी और नातिन की आँखें एक दूसरे से बहुत बातें कर लेतीं। अनकहे शब्द और अनगढ़े अर्थ मन को छूते। वह खुशियों की पोटली हाथ से छूटती ही नहीं। उस बित्ते भर की जान के भीतर कितने मीठे अफसाने थे! बगैर शब्दों के उसके हाथ, पैर, आँखें होंठ सब कुछ बोलते रहते। इतना कुछ कह जाते कि वे उस मौन भाषा के अथाह सागर को पढ़ती रहतीं। उन लहरों में गोते लगाती रहतीं।"

(इसी उपन्यास से)

वीणा में गंगाशरण सिंह की समीक्षा - काँच के घर 

किसी पुरानी फ़िल्म में अभिनेता राजकुमार का एक संवाद बेहद मक़बूल हुआ था- "जिनके घर शीशे के होते हैं, वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारते।"


हंसा दीप जी का नया उपन्यास देखते ही यह संवाद बरबस स्मरण हो आता है। इस किताब के दोनों मुख्य किरदार दरअसल आत्ममुग्धता की एक मिसाल हैं जिनके दुखों का मूल उनके प्रतिद्वंद्वी का सुख और उसकी सफलता है। अपने विरोधी को डिस्टर्ब करने या उनके लिए परेशानी खड़ी करने में वे ज़्यादा तत्पर नज़र आते हैं। किताब के पहले ही पृष्ठ का यह उद्धरण देखिये- "नंदन जी बार-बार सोशल मीडिया पर मचल रहे थे- "मेरे सौ सफल वेबिनार हो गए।" मोहिनी जी ने खीजकर संदेश भेजा था- "सौवाँ मुबारक!"

ત્રણેયના હાથ એક બીજાને સ્પર્શી રહ્યાં હતા. એ સ્પર્શની શોધમાં જે તાકાત આપે છે. એ ખુશીની શોધમાં જે પછીની પળે મળે ન મળે, પછીની પળ જ બતાવી શકશે. એ સોનેરી કાલની શોધમાં જેનો પાયો સોળ વર્ષ પહેલાં નાખવામાં આવ્યો હતો.

હળવી ધ્રુજારી હતી, હાથોના એ મેળાપમાં. રિયા અપલક જોતી રહી બંનેને. કેટલાય રંગ આવ્યા, કેટલાય ગયા, પોતાનું બધું બાળપણ એની આંખોમાં એક ફિલ્મ જેમ ફરવા લાગ્યું.

“પામી” સિવાય તો બીજા કોઈ ચહેરા દેખાતા ન નહોતા એને.

સૈમ અને તાન્યા શ્વાસ રોકીને ઊભા હતા. અચાનક રિયાએ સૈમ અને તાન્યાના મોં ને પાસે લાવીને વચ્ચે પોતાનું મોં ઘુસાડ્યું. અને જોરથી રાડ પાડી – “પામી કી ચુમ્મી....” આ સૌથી લાંબી ચુમ્મી હતી.

અને ખીલખીલાટ કરવા લાગી, બરાબર એમ જ... જેવી રીતે પહેલી વાર પામી કી ચુમ્મીનો એકરાર કરતા ખીલખીલાટ કર્યો હતો.

સૈમ અને તાન્યાના રોકેલા આંસૂ વહેવા લાગ્યા. એવી રીતે, એમનો વહેતો પ્રવાહ શરીરના અંગ-અંગમાં નવી ઊર્જા ભરી રહ્યો હતો. મજબૂત પકડી લીધા રિયાએ એમને. “તમે દુનિયાના સૌથી સારા મમા-પાપા છો.”

સૈમ અને તાન્યાનાં પકડેલા હાથ હવામાં લહેરાવતા ખુલી જાય છે. ખુલતી મુઠ્ઠીની નવી રેખાઓને જોતાં.

(इसी उपन्यास से)