घुसपैठ-हंसा दीप 

घुसपैठ

अंग्रेजी, मराठी, पंजाबी में अनूदित 

हंसा दीप


घर में हर तरह का ऐशो आराम था! छोटा-सा सुखी परिवार। सुख के इन्हीं दो अक्षरों में बहुत कुछ और भी छुपा था। वह सब कुछ जो कभी किसी को संतुष्ट नहीं कर पाता। इतना लालची है यह शब्द कि बस मुँह फैलाए खड़ा रहता है सामने, और.. और.. की रट लगाए। बेचारा आदमी लगा रहता है इस ‘और’ के हर ‘और’ को पूरा करने में जबकि ‘और’ की कोई सीमा ही नहीं होती। ये एक के बाद एक कुछ यूँ आते रहते हैं मानों एक दूसरे का अनुसरण कर रहे हों। यह अनवरत सिलसिला कभी रुकता नहीं।

कोई परिवार सुखी दिख जरूर सकता है, पर वह वाकई सुखी है या नहीं, यह प्रश्नवाचक चिन्ह हमेशा लगा रहता है। उस परिवार में भी यही हो रहा था। पति, पत्नी और वो तीन प्राणी थे। एक माँ, एक बेटी और एक दामाद। दामाद के लिये अपनी सास ‘वो’ थी, और सास के लिये दामाद ‘वो’ था। बिटिया रेने उन दोनों के ‘वो’ के चक्कर में कभी इधर तो कभी उधर शटल कॉक बनी रहती।  

कहने-करने को तो बहुत कुछ था घर में, पर जो नहीं था, वह बस नहीं था। ऐसा ही कुछ था रुबिन, रेने और मार्शलीन के बीच। तीनों अलग-अलग व्यक्तित्व के धनी। एक घर में एक दूसरे से टकराते रहते। मार्शलीन की बेटी रेने और दामाद रुबिन। तीन खाने वाले और तीन कमाने वाले। पैसा तीन ओर से आता था तो खुशियाँ भी तीन ओर से आ सकती थीं। लेकिन इन तीनों ओर से आती थी सिर्फ चिड़चिड़ाहट और एक-दूसरे की नुक्ताचीनी। राई जैसी छोटी-छोटी बातें देखते ही देखते पहाड़ में बदल जातीं और उससे टकराता रहता तीनों का अहं। तीन मजबूत व्यक्तित्वों की टकराहट के चलते घर की चहारदीवारी के भीतर शांति ही खतरे में पड़ गयी थी। 

कौन, किस समय, क्या करता है इसका उतना महत्व नहीं था जितना इस बात का था कि कौन कितना ‘और’ करता है। दामाद रुबिन को उसकी सास ‘पैकेज डील’ में मिली थी। जहाँ एक के साथ दूसरा मुफ्त में मिलता है। लेना चाहे, या न चाहे, लेने वाले के पास चयन का कोई अधिकार नहीं था। शादी की पहली और आखिरी शर्त यही थी क्योंकि इकलौती बेटी रेने के अलावा मार्शलीन का इस दुनिया में कोई नहीं था।

उस समय तो प्यार की सुगबुगाहट कुछ ऐसी थी कि सब कुछ मंजूर था रुबिन को, यहाँ तक कि आकाश के तारे तोड़ना भी। फिर यह तो एक बहुत ही छोटी सी बात थी उन दिनों। ये सोचकर बहुत अच्छा लगा था कि घर पर कोई होगा जो हर दम घर का, रेने का ध्यान रखेगा। शुरुआती दिनों में कुछ समय तक सब ठीकठाक रहा, पर कुछ अरसे बाद, कहीं न कहीं रेने और मार्शलीन की जुगलबंदी रुबिन को खलने लगी थी। उसे लगता था कि वह इन दोनों पाटों के बीच पिस कर रह गया है। मार्शलीन अपना कहा मनवा ही लेती थी। उसके बड़े होने का वह बड़प्पन छोटों के आड़े आ जाता। रेने को माँ की बात मानने की आदत सालों से थी। उसके लिये यह सब नया नहीं था। दिक्कत तो रुबिन के सामने थी। वह तो इस परंपरा में अभी-अभी शामिल हुआ था। उसके लिये हाँ में हाँ मिलाना आवश्यक था।

‘हाँ जी’, और ‘जी हाँ’ में सिर हिलाना कुछ दिनों तक अच्छा लगा, फिर धीरे-धीरे सिर हिलने में समय लगने लगा। कई बार तो हिलता भी नहीं। माँ की नहीं सुनी तो बेटी आकर दबाव बनाती, और तब वह असहाय महसूस करता। ऐसा लगता मानो वह किसी घोड़े में तब्दील हो गया हो जिसकी लगाम माँ-बेटी हमेशा खींचती रहती थीं। हिनहिनाता घोड़ा धीरे-धीरे बगावत करने लगा। खेल शुरू तो पहले ही हो चुका था पर उस दिन से बिगड़ने लगा जब किचन में उसके पसंद की कोई चीज बनी, जिसे  वह और खाना चाहता था। अचानक उसे कड़कती आवाज में रोक दिया गया – “बस करो, अपनी ओर देखो।”

उसने अपनी ओर देखा, यह उसके ‘खाते-पीते घर’ वाली सेहत का मजाक था। चुभा तो सही पर रेने को कुछ इस तरह देखा उसने मानो कह रहा हो– “कम से कम मेरी खाने की आजादी तो न छीनी जाए।”

रेने बोली तो सही मगर एकदम विपरीत – “हाँ बिल्कुल, कितना भी अच्छा बना हो खाना, आदमी को अपना पेट देखना चाहिए।”

“लेकिन मैं इतना मोटा नहीं कि मेरा खाना बंद कर दिया जाए।”

“कैसी बात करते हो रुबिन, बंद कौन कर रहा है तुम्हारा खाना, पर देख कर खाओ, अभी ध्यान नहीं दोगे तो हो जाओगे मोटे।”

उसे अच्छा नहीं लगा यूँ खाने पर टोक देना। और कहीं टोका जाना तो वह जैसे-तैसे निबाह रहा था पर खाने पर इस तरह रोक देना उसे अपना अपमान लगा। अपने घर में, अपने खाने की मेज पर खाने पर पाबंदी थी। जिस घर में मन से पसंद का खाना न खा पाए इंसान वह भला घर कैसे हुआ? अपने जीवन में अगर कुछ अच्छा चाहता था तो वह था स्वादिष्ट खाना। फिर चाहे उससे कितना ही काम क्यों न करवा लिया जाए।

उस समय बगैर खाए, बगैर कुछ कहे उठ गया था वह। मार्शलीन और रेने दोनों को अहसास हो गया था कि रुबिन का इस तरह उठना सामान्य उठना नहीं है। इसमें गुस्सा है, गुस्से के साथ और भी बहुत कुछ है। मार्शलीन को रेने का सपोर्ट मिला था, वह खुश थी कि बेटी समझती है उसकी बात को। रेने को कुछ खटका तो था कि यह अच्छा नहीं हुआ पर उसने भी यह सोचकर ध्यान न दिया कि मना लेगी रुबिन को। शिकायतों का पुलिंदा लिए तो वह भी घूम ही रही थी। 

एक कुरसी भी नहीं खिसकाता। कभी एक गिलास तक उठाकर यहाँ से वहाँ नहीं रखता।

वह भी काम करके आती है पर घर आकर भी क्या-क्या नहीं करती।

माँ भी काम से लौटकर किचन सम्भालती है।

एक रुबिन ही है जो आकर सोफे पर पसर जाता है, खर्राटे भरने के लिये। अपनी व माँ की व्यस्तता देखकर रेने को कभी नहीं लगा था कि रुबिन को बुरा लगेगा या वह चोट खाया महसूस करेगा। हालांकि यह बात और थी कि रुबिन बाहर स्नो साफ करके आता वह किसी को दिखाई न देता पर चाय पीने के बाद उसका चाय का कप वहाँ रह जाता तो उस पर बवाल मच जाता। गर्म दोपहर में घास काटकर आता वह भी किसी को न दिखता पर कहीं मशीन बाहर छूट जाती तो कोर्ट में पेशी हो जाती। शनि-रवि के दिन गैराज में घंटों खड़े होकर उसका गाड़ियों की मरम्मत करना किसी को दिखाई न देता पर किसी दिन गाड़ी में पेट्रोल खत्म हो जाए तो जुमला उछल कर आता – “कम से कम इतना तो कर दिया करो।” 

यह नहीं करता, वह नहीं करता, आँखों के काले चश्मे वही देखते जो देखना चाहते। यों किश्त दर किश्त गुस्सा जमा होता रहा। मार्शलीन को तो शुरू से ही दामाद में कुछ न कुछ गलत दिखता था, अब रुबिन को भी रेने की माँ और रेने में सब कुछ गलत दिखने लगा। दोनों के इस टकराव में रेने कभी रुबिन का पक्ष न ले पाती। उसके लिये तो अपनी माँ सदा से सही थीं और रहेंगी।

और फिर दामाद और सास ने एक दूसरे के खिलाफ कमर कस ली थी। इस खींचतान के चलते पति-पत्नी के बीच अनमनापन आना ही था। खिंचाव बढ़ने लगे। रिश्तों की लगाम दिनोदिन और अधिक कसती गयी। ऐसे में घुटन का होना स्वाभाविक ही था। ऐसी घुटन कि साँस लेना भारी हो जाए! दिन में दस बार हिसाब लगाया जाता– मैंने यह किया, मैंने वह किया। इस एकाउंटिंग में रुबिन का कॉलम खाली ही रहता। रुबिन के खाते में सीधा-सा बस एक ही हिसाब था कि वह बारह घंटों की ड्यूटी करके काम से लौटा है जिसका उन दोनों महिलाओं की नज़र में कोई महत्त्व नहीं था। काम तो वे दोनों भी करती थीं पर घर आकर फिर से घर के काम में जुट जातीं। खाना पकाना, सफाई करना, रास्ते से आते हुए दूध लेते आना जैसे तमाम काम। उन दोनों में से किसी को भी इस बात का अहसास नहीं था कि उनके काम में और रुबिन के काम में तनख्वाह का अंतर भले न हो पर काम के श्रम का अंतर था। रुबिन का काम शारीरिक रूप से थका देने वाला ऐसा काम था कि वह आते ही खा-पीकर सो जाना चाहता और यह मार्शलीन को फूटी आँखों नहीं सुहाता था।

बैठक में सोफे से उठते उसके खर्राटे कानों में गूँज-गूँज कर तिलमिलाहट का गुबार इकट्ठा करते रहते। वह गुबार भरा गुब्बारा फट पड़ता जब वह खाना खाने बैठता। एक दिन, दो दिन और फिर हर दिन बगैर रुके यह सिलसिला चलने लगा। रुबिन को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं थी कि खाने के बीच कोई उससे दस सवाल करे, बीस रोक-टोक लगाए। वह मौन रहते हुए खाना चबाने का आदी था। जब उन्हें खाते समय टोकते देखता तो मन खराब होता। उनके मुँह के अंदर का अधचबा खाना लार के साथ दिखाई दे जाता तो उसे घिन आती, इसीलिये न देखता, न बोलता, बस सिर नीचा किए अपना खाना खाता रहता।

यह माँ की नज़र में बेटी का, और बेटी की नज़र में माँ का तिरस्कार होता।

ऐसे समय में रुबिन को वो सारे पल याद आते जब उसके काम को सराहना तो दूर, बुरी तरह से दुत्कारा गया था। फिर चाहे वह किसी बिल का पेमेंट करना हो या फिर कोई चीज़ खरीदनी हो। वे कोई महंगी नहीं बल्कि छोटी-मोटी चीज़ें होतीं। जैसे उसके खरीदे गए केलों में कच्चापन होता, नींबुओं में रस की कमी होती और उसके द्वारा की गयी साफ टेबल को फिर से साफ किया जाता।

इन सड़ी-सड़ी मगर बढ़ी-चढ़ी बातों से रिश्तों पर ऐसे धब्बे लगते जो आगे चलकर छूटना भी कठिन था। परत दर परत जमते वे धब्बे अमिट बनते जाते। फिर उन धब्बों की वजह से रिश्तों का असली चेहरा इस कदर धूमिल होता जाता कि एक दिन अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता। यही हुआ भी! तीनों अपने आत्मीय रिश्तों के बीच का असली चेहरा खोजते रहते जो अब कहीं दिखाई न देता। घर, घर न रहा, साजिशों और नफरतों का अड्डा बन गया। अब अपने लिये अलग ठिकाना ढूँढना ही एकमात्र उपाय बचा था।

यूँ सुख में ही सुख की खोज करते वे रिश्ते, कभी नहीं खोज पाते अपने खोए हुए सुख को। चहारदीवारी से रूठा हुआ सुख चला जाता अपना एक अदद ठिकाना ढूँढने। अपने भीतर छुपा सुख खोज न पाने का गम सदा के लिये हावी हो जाता। कभी किसी ने ये नहीं सोचा कि घर में इतना किच-किच करने की आखिर वजह क्या है? क्या सचमुच रुबिन का खाना इतना अखर रहा है। क्या सचमुच उसके द्वारा किए गए कामों में काम जैसा कोई काम कभी दिखाई नहीं देता। ऐसा नहीं हो सकता कि वे एक दूसरे में वह ढूँढे जो उन्हें दिखाई नहीं देता।

और फिर एक दिन वह हुआ जो नहीं होना चाहिए था। रास्ते अलग हुए, घर के टुकड़े हुए। बरसों बरस से परिवारों का नेपथ्य वही था, सिर्फ कथ्य भर बदला था, वह भी जरा-सा। परिणाम भी बरसों से वही था, महज़ अर्थ भर बदला था, वह भी जरा-सा। किसने, किसके घर को तोड़ा, यह सोचने का समय किसी के पास नहीं था। सुख की तलाश फिर से शुरू हो गयी थी; इधर रुबिन की, उधर रेने की। टूटने के निशान बने भी नहीं थे कि मिटने लगे। अपने-अपने जीवन की दखलंदाजी को बाहर निकाल कर फेंकते हुए अजीब सा सुख मिला था, अपने अहं की जीत का सुख। किसके जीवन में किसने घुसपैठ की थी यह एक अनुत्तरित प्रश्न था। ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर सबको मालूम था सिवाय घुसपैठिए के।

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