अधजले ठुड्डे

अधजले ठुड्डे

अधजले ठुड्डे

हंसा दीप


 

आज उसके काम का दूसरा दिन था। बैकयार्ड के रंग-रोगन व झाड़-फूस साफ करवाने के लिये मैंने उसे बुलाया था। गर्मी में बाहर बैठने का आनंद लेने की तैयारी थी। पूरे सात-आठ महीनों की ठिठुरती सर्दियों के बाद मौसम का बदलाव, मन को भी बदल रहा था। आने वाले दिनों में अधिक से अधिक बाहर बैठ कर खुली हवा में साँस लेने के लिये सफाई जरूरी थी। कई लोगों को फोन करने के बाद इसे चुना था मैंने, जिसका नाम था- लीवी।

समय का पाबंद था वह। कल की तरह आज भी ठीक नौ बजे उसकी गाड़ी लग गयी ड्राइव-वे में। साइड के गेट से वह पिछवाड़े आया। आते हुए ड्राइव-वे में पड़ा अखबार उठाता लाया। फ्रंट पेज पर “मैं साँस नहीं ले पा रहा” शीर्षक के नीचे बड़ा-सा फोटो था, उस दृश्य के साथ जब पुलिस का पाँव उस ब्लैक आदमी की गर्दन पर था और वह नीचे दबा हुआ था। विश्वभर में रंगभेद के खिलाफ चल रहे प्रदर्शनों से भरा हुआ था अखबार। 

“यू सी, बैड पिपूल इन दिस वर्ल्ड!”

मैंने हामी भरी। “दुनिया में बुरे लोगों की कमी नहीं” यह जुमला मेरी जबान पर हमेशा रहता है। मैं चाहती तो सहानुभूति के दो शब्द कह सकती थी। उसकी मन:स्थिति का भान तो था मुझे, पर अपना काम करवाने की फिक्र ज्यादा थी। उसका ध्यान हटाने के लिये तत्काल उसके हाथ से अखबार ले लिया। अनावश्यक बहस में पड़कर किसी के जख्मों पर नमक लगाने का फायदा ही क्या! आज उसे क्या-क्या करना है, इसकी जानकारी देने लगी।

अपनी सिगरेट के बचे अधजले ठुड्डे को कुचलते हुए सुन रहा था वह। उसके दाँत भिंच रहे थे। अखबार के दृश्य से उभरता उसका गुस्सा उसके पैरों में उतर आया था। वह टुकड़ा तो कब का राख हो कर मिट्टी में मिल गया था लेकिन लीवी अब भी शांत नहीं हुआ था। पैर से कुचलते रहना मंद होती चिंगारी की चमक को बुझाना नहीं था, शायद यह अपने पैरों तले दुनिया को रौंदने का सुकून दे रहा था उसे।

कल जब पहली बार लीवी से मिली तो उसे देखती रह गयी थी मैं। फोन पर कुछ पता नहीं चला था कि किससे बात कर रही हूँ। बात करने वाले की आवाज भारी थी और बहुत सलीके से बात कर रहा था। ठीक नौ बजे गाड़ी आकर रुकी थी। मैंने उसे फोन पर सीधे बैकयार्ड में आने को ही कहा था। जहाँ तक हो सके घर में लोग न घुसें तो ठीक लगता है मुझे। किसी को इस बात का अहसास न हो कि यहाँ एक अकेली महिला रहती है। छोटे-मोटे काम भी करवाने हों तो आने-जाने में, देखने में, लोगों को घर के बारे में बहुत कुछ पता चल जाता है। इसी वजह से मैं अतिरिक्त सावधानी बरतती थी।

सामने से आते हुए उसे देखा था मैंने, वह ब्लैक था। काला रंग और कितना काला हो सकता है, उसके शरीर को देखकर यह पता चला। लंबा और मजबूत, पहली नजर पड़ते ही डर-सा लगने लगा था। उसने भाँप लिया। शायद इस प्रतिक्रिया का आदी हो गया था वह।

कहने लगा – “डोंट लुक एट मी, लुक एट माय वर्क।”

सही कहता है वह। ऐसा कहने की जरूरत पड़ी उसे क्योंकि उसकी शकल ही ऐसी है जिसे देखकर अविश्वास के भाव आ जाएँ। आदमी खुद को पहचानने लगता है। खुद को बहुत अच्छी तरह आँक लेता है। वह जानता है कि कोई उसका चेहरा देखना पसंद नहीं करता। काली चमड़ी और बड़े नथुने वाली नाक। गंजा सिर, हाथों में कामकाजी मटमैले दास्ताने और पैरों में भारी भरकम स्निकर्स। उसकी कद-काठी के सामने नाटे कद की मैं इस तरह खड़ी थी जैसे किसी हाथी के सामने कोई चींटी सिर उठाकर बात कर रही हो। किसी भी क्षण वह हाथी अपनी हथेली से मसल दे तो चींटी को चीखने का भी मौका न मिले और दुनिया से अलविदा कह जाए। उसके व्यक्तित्व से बाहर आने में कुछ पल लगे थे मुझे। न जाने किस देश से उसकी जड़ें जुड़ी हुई थीं, पर उसके तेवर साफ दिखाई दे रहे थे। एक कुशल कारीगर के तेवर। बेईमानी की मिठास नहीं, ईमानदारी की तल्ख झलक दिखी थी।

“एक बार मेरा काम देख लो फिर किसी और का काम पसंद ही नहीं आएगा तुम्हें”, सच ही कहा था उसने। एक दिन में जितना काम निपटाया था, कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी कि उससे बेहतर कुछ हो सकता है। उसने अपने काम को अपनी ताकत बनाया। यह कौशल उसे जन्म से नहीं मिला है बल्कि उसने अर्जित किया है, यही कहना चाहता था वह। अपनी चमड़ी का रंग तय करना उसके हाथों में नहीं था। अपनी मोटी और फूली हुई नाक को भी वह आकार नहीं दे सकता था। जिसके लिये वह कुछ कर ही नहीं सकता, वह कैसे उसकी अच्छाई या बुराई का पैमाना हो सकता है। उसका रूप-रंग उसके भीतर की अच्छाइयों को नकार नहीं सकता।

अपने काम के पूरे पैसे लेता है वह। कोई कोताही नहीं। जैसे ही बोलने के लिये मुँह खोलता है उसके सफेद दाँत मुस्कुराते हुए चमकने लगते हैं। लगता है सफेद मोतियों की माला गूँथ दी हो किसीने। मैं उसकी बात सुनते हुए उसके दाँतों की चमक में खो जाती हूँ। और कहीं देखने लायक जगह ढूँढ नहीं पाती आँखें। जानती हूँ कि ऐसा सोचना उसके प्रति अन्याय है। मुझे रेसिस्ट बना देता है। पर मैं भी क्या करूँ! सफेदी किसे नहीं भाती। या फिर यूँ कहूँ कि आँखों को सफेदी अच्छी लगती है। फिर चाहे वह कागज की हो या चमड़ी की।

मैं भी कोई गोरी चिट्ठी तो हूँ नहीं। दूध की धुली हूँ। कहावत नहीं, सचमुच! माँ ने दूध से खूब रगड़-रगड़ कर धोया था मुझे। बचपन में जब माँ मुझे दूध से नहलाती थीं तो जितनी देर मेरे बदन पर दूध रहता था वे प्यार से देखती रहतीं। यही दुआएँ देतीं कि रोज दूध से नहाएगी, ऐसे ही दूध जैसी गोरी हो जाएगी। मैं दूध से नहाती रही। जैसी थी वैसी ही रही पर माँ के नजरिये से कालापन चला गया था, तांबई रंग देकर। वह रंग जो इस विदेशी धरती पर मुझे बहुत सिक्योर करता था। ब्राउन कही जाती थी मैं। न तो काले रंग पर होते अत्याचार सहने पड़ते मुझे, न ही गोरे रंग की तानाशाही का आरोप लगता मुझ पर, न ही चीन से कोरोना लाने की दोषी मानी जाती।

यह भी जानती हूँ कि मुझसे बात करते हुए लोगों की नजर मेरे दाँतों पर भी न जाती होगी। क्योंकि वहाँ तो लीवी के दाँतों जैसी सफेदी नहीं है। चाय और कॉफी के कप को निरंतर झेलते मेरे दाँत मेरे ब्राउन रंग के साथ एकमेक हो गए थे। अगर किसी पैमाने से नापने लगूँ तो लीवी से दस प्रतिशत बेहतर हूँ। मैंने भी कई बार अपने सामने खड़े गोरे लोगों को अपने से बहुत ऊपर पाया था। ग्लानि महसूस की थी। तब मेरे तेवर भी अपने काम की निष्ठा के कारण ही थे। रिटायर तो अब हुई हूँ लेकिन लीवी की तरह खून के घूँट तो मैंने भी पीए हैं। एक बार नहीं, कई बार। गायों और भैंसों के बीच रहते घोड़ों की चमड़ी लेकर घूमने वाली मैं, रंगों की साजिशों का एक हिस्सा थी- व्हाइट, ब्लैक एंड ब्राउन; श्वेत, अश्वेत और तांबई! गवाही देते हुए अपने देश का वह इतिहास भी अवचेतन में कौंधने लगता, जब अपने ही देश में, अपने ही लोग कुचले गए थे। गोरे पैरों के काले जूतों की तबाही का तांडव! वह तल्खी आज भी भीतर शेष है कहीं।

लीवी अपनी काली चमड़ी का गुस्सा उन सब लोगों पर निकालता जिनकी चमड़ी उससे कई गुना उजली थी। मुझसे उसे किसी प्रकार का कोई बैर नहीं था, खुलकर बात करता। उसे हम दोनों में कुछ समानताएँ दिखती होंगी शायद। तभी तो बेहिचक अपने गुस्से को जाहिर करता।

उसका काम मुझे अच्छा लगने लगा था। बाहर के काम को उसने दो दिन में निपटा दिया तो मुझे लगा कि घर के अंदर भी कई सालों से पुताई नहीं हुई। दीवारें बदरंग होकर अपनी चमक बहुत पहले खो चुकी हैं। अब तो कहीं-कहीं पलस्तर और गिरते रंग के कतरों के साथ अंदर का नंगापन झाँकने लगा है। क्यों न साथ ही साथ यह काम भी करवा लिया जाए। जब वह जाने लगा तब आज के काम के पैसे देकर मैंने उससे अंदर के रंग-रोगन की बात की। उसने एक नजर घर को देखा, अनुमान लगा कर पक्का किया कि यह तीन बेडरूम का मकान है। घर के बाहरी आकार को देखकर अंदरूनी लंबाई–चौड़ाई का आभास था उसे।  

वह राजी हो गया। अगली सुबह आते समय रंग के तकरीबन दस डिब्बे, ब्रश, रोलर आदि सामान खरीद कर लाने के लिये उसे पाँच सौ डॉलर दिए। जैसे ही उसने नोट अपनी जेब के हवाले किए तो मुझे लगा कि अब वह लौट कर नहीं आएगा। अकेली महिला को देखकर लूटने का यह अच्छा मौका है उसके पास। लीवी पर, उसके काम पर विश्वास करने के बाद भी मन का डगमग होना विस्मित करता रहा। ऐसे चेहरों पर तो पूरी दुनिया शक करती है और मैं भी तो आखिरकार उसी दुनिया का हिस्सा थी। अपने मन को समझा भी रही थी कि अगर वह नहीं आया तो कोई बात नहीं, पाँच सौ डॉलर के एवज में मुझे अकल तो आएगी।

अगली सुबह उठते ही उसकी प्रतीक्षा होने लगी थी। नौ बजने में एक घंटा बाकी था और मेरी धुकधुकी चालू हो गयी थी। अपनी बेचैनी को दूर करने के लिये सोचा गली के कॉर्नर तक टहल आती हूँ। समय कट जाएगा और ध्यान भी भटक जाएगा। टहलते हुए देखा रोज की तरह आज सब कुछ साफ नहीं है। यहाँ-वहाँ कागज के टुकड़े, पत्तियाँ और खाने की चीजें बिखरी पड़ी हैं। दो-तीन टिम हॉर्टन्स के कॉफी कप भी लुढ़क रहे हैं। कचरे के डिब्बे ठसाठस भरे हुए हैं। ढक्कन बंद न हो पाने से तीखी गंध फैल रही है। आसपास पड़े सिगरेट के ठुड्डे बगैर कुचले फेंके गए लगते हैं। उन्हें देखते हुए एक पल के लिये मेरे कदम थम गए। उन ठुड्डों में मुझे कभी लीवी की, तो कभी अपनी शकल दिखाई दी। एक ब्लैक और एक ब्राउन, जिन्हें कुचलने वाले पैरों को कभी अहसास भी नहीं होता कि वे किसी आदमी को कुचल रहे हैं या सिगरेट के टुकड़े को।

तकरीबन आधा घंटा घूमघाम कर मैं वापस घर आ गयी। चाय नाश्ता करके घड़ी के काँटों पर नजर जाती उसके पहले कुछ आवाजें सुनीं। खिड़की से देखा कि लीवी की गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी पार्क करके उसी के जैसे दिखते तीन लोग उसके साथ दरवाजे की ओर बढ़ते चले आ रहे थे। अब तक तो मैं अकेले लीवी से डर रही थी मगर अब तीन और! उसने घंटी बजायी और कहा कि हम यहाँ का काम एक दिन में निपटा देंगे। इसीलिये पूरी टीम काम करेगी। 

धड़-धड़ करते वे लोग घर में घुसे तो मेरी साँस धौंकनी की तरह चलने लगी। वे कुल चार और मैं अकेली, अब तो मैं चींटी भी नहीं रही थी। चारों मिलकर एक फूँक में ही मुझे उड़ा सकते थे। बैठक से काम शुरू कर दिया उन्होंने। किचन में बिना मतलब के कुछ तो भी इधर-उधर कर रही थी मैं। टेढ़ी नजर से जायजा लेती जा रही थी कि वे लोग क्या कर रहे हैं। कोई दीवार घिस रहा था, कोई कपड़ा बिछा रहा था, तो कोई डिब्बों से रंग निकाल रहा था। न तो उन्होंने किसी सामान को खिसकाने के लिये बुलाया मुझे, न ही मेरी कोई मदद माँगी। एक के बाद एक रंग के डिब्बे खाली होते रहे और वे एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते रहे। 

मैं हैरान थी। इतनी तेजी से, इतना अच्छा काम हो रहा था। कमरे रंग-रंगा कर चमकने लगे थे। जो सामान जहाँ था, वापस वहीं रखते जा रहे थे। बीच-बीच में उन्हें कोक, चाय-कॉफी आदि के लिये पूछ रही थी मैं। वे खुश थे। खूब बातें कर रहे थे व ठहाके लगा रहे थे। मुझे भी बीच-बीच में अपनी बातों में शामिल कर रहे थे। बातें करने का उनका बेबाक लहजा मुझे बरबस ही हँसा देता था। लंच का समय हुआ तो वे सब आधे घंटे के लिये गए। लौटकर आए तो मेरे लिये भी एक पीज़ा की स्लाइस लेकर आए।

मैंने पूछा – “मेरे लिये क्यों!”

लीवी बोला – “बिकॉज़ यू आर वेरी नाइस।”

मैं खिसिया गयी। मेरे अंदर का वह सच छुपाए नहीं छुप रहा था कि “मुझे तो तुम पर जरा भी विश्वास नहीं।”

पीज़ा मुझे बहुत पसंद है। लेकिन न जाने क्यों उस पीज़ा की स्लाइस ने मुझे आकृष्ट नहीं किया। लीवी की भलमनसाहत का आदर करते हुए मैंने उसे फ्रिज में रख दिया यह सोचकर कि बाद में फेंक दूँगी।

तेजी से काम हो रहा था। बीच में दो बार उसने और रंग लाने के लिये पैसे मांगे। हर बार मेरे हाथ से जाते हुए नोट मुझे डरा कर जाते। यही लगता कि अब नहीं आएगा वह। जब वह बाहर जाता तो उसके साथी बाहर घास में बैठ कर सुस्ता लेते। कुछ ही देर में वह लौट आता, मुस्कुराते हुए। लीवी की दूध सी उजली हँसी अब मुझे बहुत अच्छी लगती, मेरे विश्वास को बढ़ाती। 

उनका काम खत्म होते-होते शाम के सात बज गए। दो दिन का काम एक दिन में खत्म करके अब वे जाने की तैयारी कर रहे थे। रंग-रोगन के बाद हुई गंदगी को साफ करके हाथ धो रहे थे। मैंने लीवी को उसके पैसे दिए, टिप भी दी, ताकि वे चारों अच्छी तरह डिनर कर सकें। काम करने वाले का और काम करवाने वाले का रिश्ता अब सहज था। दिनभर घर में उन चारों के ठहाकों की रौनक थी। बहुत हँसाया था मुझे। घर के अंदर की एक-एक चीज़ को लीवी सहित चार लोगों ने देख लिया था, पर अब वैसा कोई डर मुझे कचोट नहीं रहा था। न जाने क्यों मुझे बार-बार यही लग रहा था कि लीवी मुझे पहले क्यों नहीं मिला। कई बार छोटे-मोटे काम करवाने के लिये मुझे बहुत परेशानी उठानी पड़ी है।

जाते हुए मैंने उसे बाहर लॉन में सिगरेट के कश लगाते हुए देखा। बरबस ही मेरे मन में उत्कंठा जागी कि देखूँ तो सही, इस समय सिगरेट के अधजले ठुड्डे को वह कुचलता है या नहीं। उसने वह सिगरेट का टुकड़ा बुझने तक थामे रखा और फिर पास रखे कचरे के डिब्बे में फेंककर, गाड़ी स्टार्ट करके चला गया।

मैंने संतोष की साँस ली कि उसके मन में मेरे लिये कोई गुस्सा नहीं है। मैं अपने मन की बात को दबाकर रख पायी थी। मैंने फ्रिज में से उसका लाया पीज़ा निकाला और गरम करके खाना शुरू किया। मानो लीवी यहीं कहीं कमरे में मौजूद हो और देख रहा हो कि मैंने उसकी ट्रीट का आदर किया। मेरे सामने अब उसके सफेद दाँत ही नहीं उसका पूरा व्यक्तित्व था, उजली किरण से भी उजला।  

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Dr. Hansa Deep

hansadeep8@gmail.com