घास - हंसा दीप 

घास  

  

गर्मी के बहुप्रतीक्षित दिन बहुत मान-मनुहार के बाद आते और जब ये आते तब जाकर बर्फ से अटी-पटी जमीन को लंबी साँस लेने का मौका मिलता। सर्द और चुभती हवाएँ थोड़ा विश्राम लेने के लिए थम जातीं। नए शिशु की तरह धरती से बाहर झाँकते नवजात तृण अपनी झूमती अदाओं के साथ दुनिया में कदम रखते। हरे रंग का प्रकृतिदत्त सौंदर्य अपने पूरे लश्कर के साथ धरती को आगोश में लेकर अपना प्रेम जाहिर करने लगता।

और तब, लीटो का घास काटने का काम शुरू हो जाता। जैसे-जैसे हरी दूब अपने शैशवकाल से किशोरावस्था की ओर कदम रखती वैसे-वैसे लीटो के दिन व्यस्त होने लग जाते। छह महीने हर घर का लॉन सँवारना, छह महीने बर्फ हटाना। यही उसकी कमाई, रोजी-रोटी थी। इसी मौसमी बदलाव के साथ तालमेल बैठाता उसका जीवन गुजर रहा था। बर्फ हटाने का काम इतना आसान होता नहीं जितना सुनने में लगता।

कैनेडा की कड़कड़ाती सर्दियों में जब बर्फ अपने पूरे वेग के साथ गिरती तो मशीनें हों, फावड़े हों या बलिष्ठ आदमी, सब टें बोल जाते। हड्डियों को चीरती ठंड के प्रकोप के साथ यह श्रमसाध्य नौकरी आसान नहीं। ठंडरोधी कपड़ों से बंडल-अप होकर, आधे घंटे घर के बाहर बर्फीले रास्ते साफ करना पूरी तरह निचोड़ कर रख देता।

इसके विपरीत सुहाने गर्म मौसम में घास की देखभाल करना मन को आकर्षित करता। घास में खाद डालना, बीज डालना, जंगली घास को नियंत्रित करना, सूखी पत्तियों को एकत्र करना, ऐसे कई काम लीटो की झोली में रहते। लगभग पूरा मोहल्ला उसका ग्राहक था। इन दोनों कामों के अलावा किसी और काम के लिए वह कभी 'हाँ' नहीं करता। कहता– “आगे-पीछे मेरा कोई है नहीं और जीने के लिए बस इतना ही चाहिए। हरियाली और सफेदी से मेरी दोस्ती है। किसी और रंग से मेरा क्या संबंध!”

उसका सामान्य-सा वाक्य भी बहुत कुछ कह जाता। घास और बर्फ किसी की जीविका हो, यह जानना मेरे लिए कौतूहल से भरा था। पैंसठ की उम्र के बाद वह सरकारी मेहमान होगा। दवाइयों और खाने का खर्च आराम से निकल जाएगा। उसकी जन्मभूमि का पता नहीं था मुझे, पर यह मालूम था कि यही उसकी अपनी कर्मभूमि थी।

इस मोहल्ले में कौन कितने साल पहले आया, कौन कब गया, कौन किराएदार रहा, यहाँ तक तो ठीक, मगर इसी के साथ किसने, कितने में घर खरीदा था, कितने में बेचने की योजना थी, यह सब उसे मुँहजबानी याद था। मोहल्ले के इतिहास की पुस्तक था– लीटो। उसकी जबान पर हर एक पन्ना छपा था, और हर पन्ने पर एक नाम दर्ज था। जब से हम यहाँ आए, हमारा नाम भी उसकी पुस्तक में दर्ज हो गया था। हर कोई जान गया था कि कोई नयी चिड़िया अपने परिवार सहित इस छोर पर अपना बसेरा बना चुकी है।

बड़ी-सी हैट पहनकर, बहुत शान से अपनी घास काटने की मशीन पर चढ़ कर आता वह। ऐसा लगता जैसे कोई बड़ा संगीतकार, कंट्री बॉय के रूप में अपनी शानदार प्रस्तुति के लिए मस्तानी चाल से चला आ रहा हो। दर्शकों के नाम पर खिड़की से झाँकते हुए मकान मालिकों की आँखें होतीं। सप्ताह में एक बार, नियत समय पर हर घर के आगे-पीछे उसकी एंट्री होती। आते हुए, जाते हुए, बात करने के लिए उत्सुक दिखाई देता वह। नए मोहल्ला निवासी के बारे में, मकानों की कीमत के बारे में, लोगों की कंजूसी के बारे में, छोटी-छोटी बातें जानना सुखद होता। आँखें घूमतीं, ठहाके लगते और मोहल्ले के बारे में ज्ञान भी बढ़ जाता।

गप्पें लगाना किसे अच्छा नहीं लगता, जब तक खुद निशाना न बनें। हम सब यही करते। अपने अलावा हर एक घर को निशाना बनाकर मजे लेते रहते। 

नए आशियाने में आते ही मैंने लीटो को लॉन की घास काटने के लिए रख लिया था। पैसे देने के लिए मुझे खुद याद रखना पड़ता। उसका आने का समय देखकर उसके पीछे दौड़ना पड़ता। वह कहता- “पैसों की चिंता मत करो, कहीं भाग कर नहीं जा रहे।” मैं हैरान होती, अपने मेहनताने का मोह हर किसी को होता है, पर शायद वह जाहिर नहीं करता। 

धीरे-धीरे मैं उसके स्वभाव की अभ्यस्त होती गयी और वह मेरी अपेक्षाओं का। महीने के अंत में उसके हाथ में जाते मेरे पैसे बोलने लगे। बोलते-बोलते डपटने लगे। मैं अपनी जेब से जा रही पाई-पाई का मूल्य लॉन की हरियाली में देखना चाहती। जितने पैसे मैं उसे देती, उतने ही हरे रंग की मेरी अपेक्षा रहती। वह घास की कटाई, बुवाई, सिंचाई, सफाई करता, मैं तिनके-तिनके का हिसाब रखती। किसी भी कोने में जरा सी ऊँची-नीची घास देखते ही मेरा मालिकाना अंदाज ऊँचा-तीखा हो उठता।

सवाल पर सवाल होते मेरे- “एक ही लॉन में हरे रंग का अलग-अलग रूप कैसे हो सकता है लीटो, तुम उस ओर ध्यान नहीं देते।”

कहीं गहरा हरा, कहीं हल्का होते-होते दो-चार शेड्स के बाद घास का रंग पीला पड़ता नज़र आता तो मेरी त्योरियाँ चढ़ जातीं। कहाँ ठीक से कटी, कहाँ बड़ी रह गयी, छोटी रह गयी। मैं चिक-चिक नहीं करती, मगर टोन कुछ ऐसे होता कि उसे लग जाता कि मैं उसके काम से संतुष्ट नहीं थी। घास के बीच उग रही जंगली घास हमेशा मेरे निशाने पर रहती। जंगली आड़ी-तिरछी और सुसभ्य-संतुलित आकार की घास के इस घालमेल से मुझे सख्त नफरत थी। नाजुक-सी हरी दूब के बीच उग रहे जंगली पीले फूल मुझे मुँह चिढ़ाते। 

हरी-हरी घास के बीच, जंगली घास-फूल कैसे आ जाते हैं लीटो?”

वह गहरी मुस्कान के साथ कहता– “ये बिन बुलाए मेहमान हैं, और ऐसे जिद्दी मेहमान हैं कि जल्दी जाते नहीं।”

सच कहता था लीटो। केमिकल्स डालने के बावजूद वे शान से बढ़ते रहते। उनका अस्तित्व सभ्य घास की तुलना में अधिक मजबूत था। न पानी, न खाद, फिर भी तेजी से विस्तार। अपने से छोटों को दबा कर लॉन की सुंदरता को ग्रहण लगा देते।

यही तो दुनिया में भी होता है। बुराइयाँ तेजी से बढ़ती हैं अच्छाइयों को पीछे छोड़ देती हैं। जड़ से जब तक न काटो तब तक समाज के लिए कलंक बनी रहती हैं।”

लीटो का एक-एक शब्द जैसे जंगली घास से भरपूर समाज की परतें खोलता नज़र आता। कोमलता में घुसी सख्त कठोरता, तमाम चेहरों से नकाब उतार देती। बीन-बीन कर एक-एक बुराई को हटाओ तो भी हज़ार गुना होकर फिर से जन्म ले लेतीं। अपराधों से भरे अनेक कुकृत्य इतने सभ्य समाज में भी यत्र-तत्र होते रहते। जड़ से कभी हटते नहीं और समाज को लगातार जीर्ण-शीर्ण करते रहते।

उसके इस दर्शन में गहरे तक उतरने के बावजूद मैं लीटो के प्रयासों पर शक करती। उसके कथन का सच जानते हुए भी अनजान बनी रहती। वह ठीक से काम नहीं कर रहा शायद इसीलिए जंगली घास बेशरमों की तरह बढ़ती जा रही थी। उसका बड़बोलापन अब खटकने लगा था। मैं उसका विकल्प खोजने लगी। एक और घास काटने वाला था जो कम पैसे लेता था। चूँकि लीटो से साल भर की डील हो गयी थी इसलिए ज्यादा पैसे देकर उससे मुक्ति पाने का यह एक क्षीण-सा प्रयास था। कोई भी चीज संख्या में दो हो तो एक की अविश्वसनीयता साफ नजर आने लगती है। चाहे इंसान हो या वस्तु। उसका ज्यादा पैसे लेना अब खामियों को गिनाने में मेरी बहुत मदद करता।

ढलती उम्र में एक ही बात पर अड़े रहने की हठ स्वत: घर कर गई थी। भीतर की भड़भड़ाहट बाहरी चिड़चिड़ाहट में बदल कर सामने वाले को विस्मित तो करती पर अपने काम को बदलने का एक रास्ता भी बताती। शिखर से ढलान पर जाते-जाते धीरे-धीरे मेरी आदत-सी हो गयी थी, हर बार ऐसा कुछ कहना जो मेरा असंतोष झलका दे। पैसे देने की ठसक न जाने कैसे मेरी जबान पर आ जाती और जाने का नाम न लेती। उसकी मशीन घास जरूर काटती मगर मेरे पैसों की खनक उसकी आवाज में होती। 

वह कभी चिढ़ता नहीं। कहता- “जब कोई और काम करेगा तो तुलना करना आसान होगा। एक बार किसी सस्ते घास काटने वाले को रखकर देख लो आप, फर्क खुद-ब-खुद पता चल जाएगा।” 

मैं उपेक्षा से सिर हिला देती। अब उसे हटाने के लिए मैं पूरी तरह से कमर कस चुकी थी। मोहल्ले के लोग हर साल घास के साथ बर्फ हटाने के लिए भी उसे रख लेते हैं लेकिन मैं कंजूसी कर गयी। बर्फ के लिए इतने पैसे देना उचित नहीं लगा। सोचा “जब गिरेगी, तब देख लेंगे। फिलहाल मुल्तवी रखो। मोहल्ले वालों ने इसके भाव बहुत बढ़ा दिए हैं। काम-वाम करता नहीं बस बातें करवा लो।”

और इसी ऊहापोह में कब बर्फीले दिन दस्तक देने लगे, पता ही नहीं लगा। एक दिन बहुत बर्फ गिरी। पूरा बाहरी दालान बर्फमय हो गया। मेरा दरवाजा तक नहीं खुला। क्या करूँ, क्या न करूँ! दो फावड़े भर कर हटाती और थक जाती। ऐसा लगता जैसे भरे समंदर से दो बूँद पानी निकाल लिया हो। कोई मदद करने वाला नहीं था। न मैं बाहर निकल सकती थी, न ही किसी को बुला पा रही थी। सिवाय इसके कि मौसम ठीक हो और अपने आप बर्फ पिघल जाए। एक-एक करते दिन बड़ी कठिनाई से निकले।

वो बारह दिन मानो बारह बरस के बराबर थे। आखिरी दिन तक दूध, सब्जी सब कुछ खत्म था। आटे-दाल के डिब्बे खाली तो नहीं हुए थे, पर बजने लगे थे। शुक्र था कि घर में इतना सामान था कि मेरा काम चल गया था।

आज सहसा वह किसी काम से सामने वाले के घर नजर आया। हाय-हलो के बाद मैंने अपना हाल उसे सुनाया। बहुत दिनों की चुप्पी थी, अपनी आपबीती सुनाने से रह न सकी। कहने लगा- “अरे, इतनी परेशान थीं आप, मुझे फोन कर देतीं, मैं तो पीछे ही रहता हूँ।”

पीछे!” मैं चौंक गयी। पीछे बड़े-बड़े मकान थे, तीन मिलियन डॉलर से ऊपर। पॉश कॉलोनी थी। मन ही मन अनुमान लगाया कि शायद किसी के बेसमेंट में किराए से रहता होगा। किराया भी यहाँ कोई कम नहीं था, दो हजार डॉलर महीना। यह घास काटने वाला इतना किराया देगा तो खाएगा क्या! हो सकता है इस इलाके में अच्छा काम मिल रहा हो तो उसने यहीं रहने के बारे में सोच लिया हो। मैंने उसके कथन को खँगाला, पूरी तरह तफ़्तीश के मूड में थी- “अच्छा, यहाँ किसी का बेसमेंट किराए पर लिया?”

उसने कहा- “नहीं, मेरा अपना घर है।”

तुम्हारा घर यहाँ?”

हाँ, क्यों, आश्चर्य की क्या बात है इसमें?”

यह महँगा इलाका है, इसीलिए आश्चर्य हुआ।”

हाँ है तो, पीछे की लाइन में मेरे तीन मकान हैं। इक्कीस, तेईस और पच्चीस नंबर। इक्कीस में मैं रहता हूँ, तेईस और पच्चीस किराए पर दिए हैं।”

मेरा मुँह खुला का खुला रह गया- “हाहा, मजाक कर रहे हो, है न? सुबह-सुबह मैं ही मिली तुम्हें!”

मजाक क्यों करने लगा भला!”

क्योंकि तीन मकानों का मालिक दूसरों के घरों में घास क्यों काटेगा?”

यह मेरा काम है। मुझे अपना काम पसंद है। यही मेरी जीविका है। मुझे घर में बैठना अच्छा नहीं लगता।”

अब मैं पूरी तरह हिल गयी थी। इस आत्मविश्वास भरे जवाब में शक-शुबहा की गुंजाइश ही नहीं थी। मकान के नंबर बता ही दिए थे उसने। पीछे की गली में जाकर उन मकानों को देखने में मुझे कुछ मिनट ही लगते, ये पक्का करने के लिए कि ये मकान उसी के हैं। मेहनत-मशक्कत से तरक्की का एक जीता-जागता उदाहरण मेरे सामने खड़ा था।

एकाएक मैं जमीन में धँसती चली गयी और वह मेरे सामने विराट होता चला गया, 3डी फिल्म की तरह। एक बड़े आकार के सामने छोटा आकार! उसके तीन बड़े घरों के सामने मेरा एक घर बहुत छोटा था, लेकिन उससे कहीं ज्यादा मैं छोटी हो गयी थी, खुद अपनी ही नज़रों में। यह सोच-सोच कर कि जंगली घास सिर्फ घास के बीच ही नहीं थी, इंसानों के बीच भी मौजूद थी। वैसा ही जंगलीपन मेरे भीतर से भी जब-तब निकलकर बाहर झाँकने लगता था।

दस मिलियन प्रापर्टी का मालिक मेरे आँगन की घास काट रहा था और मैं नुक्ताचीनी करते हुए छिछलेपन की सीमाएँ पार कर रही थी। एकाएक हवा उल्टी दिशा से बहने लगी थी। उसका माथा चौड़ा हो गया था। उस पर सुसज्जित तिलक में, चावल के दाने, लाल और सफेद रंगों से सुसज्जित रंगीलापन, शोभनीय आकार दे रहे थे।

अब बचे हुए बर्फीले मौसम के लिए उसे काम देने का मैंने निश्चय कर लिया। उसके आने पर खिड़की से अभिवादन करती, खामियाँ निकालने और सवाल करने के ख़याल डिलीट की गई फाइलों की तरह ही दिमाग से जैसे मिट ही गए थे।

एक बार फिर बर्फ का मौसम आहिस्ता-आहिस्ता अलविदा कहता जा रहा था। बीतते दिनों के साथ फिर से लॉन में हरी दूब झाँकने लगी थी। अब मुझे उस पर भरोसा हो चला था। लॉन से कहीं ज्यादा मेरे दिमाग में उगी जंगली घास को लीटो के केमिकल्स ने ख़त्म कर दिया था।

हरियाली धीरे-धीरे प्रस्फुटित होकर अपना रास्ता बनाने लगी थी, घर के बाहर भी और मेरे भीतर भी!

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