जिंदा इतिहास
जिंदा इतिहास
हंसा दीप
यूँ तो परी ने कई पुरस्कार जीते थे, लेकिन छोटे-छोटे। ऐसा मौका पहली बार मिला था। वह इसमें जी-जान लगा देना चाहती थी। आज की डाक में आर्ट गैलेरी ऑफ ओंटेरियो से एक विज्ञप्ति आई थी। बारह से सोलह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय चित्र प्रतियोगिता का आयोजन था। प्रविष्टि भेजने की अंतिम तारीख में एक माह शेष था। एक हज़ार डॉलर का पुरस्कार इसकी सबसे बड़ी खासियत थी।
तब से परी बेचैन थी। लगातार कुछ सोच रही थी। उसकी सारी कलाकृतियाँ एक के बाद एक आँखों के सामने उपस्थिति दर्ज कराती रहीं। इनमें से किसी एक को चुनकर भेजे, या फिर नया कुछ बनाए! ऐसा 'पीस ऑफ आर्ट' जो बरबस सबका ध्यान खींच ले। वह जानती थी कि इतने दिनों में कुछ अच्छा बना सकती है। दुविधा यह थी कि कौन-सा नया विषय लिया जाए! ऐसा विषय जिस पर हर किसी की आँखें ठहर जाएँ।
कई अच्छे चित्र तैयार थे जिन्हें बनाने के लिए उसने बहुत मेहनत की थी। शीर्षक चुनने के लिए कई शब्द काटे-पीटे, तब कही जाकर संतोष हुआ था- पर्वतों के सीने, नदियों के दिल, शैतान हवाएँ, जलते जंगल, धरती की गोलाई, गगन खुद में मगन, रेतीला दिल...और भी बहुत सारे!
लंबी सूची थी। कैनेडा के सबसे मशहूर स्थान सी एन टावर, थाउज़ेंड आइलैंड, लेक ओंटेरियो; ऐसे कई सारे विषय इस समय उसे आकर्षित नहीं कर रहे थे। चित्रकारों की पहली पसंद नहीं बल्कि आखिरी पसंद पर ध्यान देना चाहती थी परी। ऐसा विषय जिसके बारे में कोई सोच भी न पाए।
'परी कला बैंक', पापा ने परी के कमरे के बाहर यह नेम प्लेट लगवा दी थी। इस कमरे में परी के बनाए चित्रों का खजाना था। यूँ तो वह हर चीज से कोई शो-पीस बना लेती थी लेकिन चित्रकला में उसकी खास रुचि थी। बारह साल की उम्र तक पहुँचते उसके हाथ खूब सध गए थे। कई ऐसे चित्र बनाए थे कि उन्हें देखकर मम्मी-पापा भी विस्मित रह जाते। अपने अनगढ़ हाथों को देखते हुए आश्चर्य करते, क्या यह सचमुच उनकी अपनी कृति, परी की कृति है!
बचपन से उसकी इस रुचि को देखकर पापा ने घर का सबसे बड़ा कमरा परी को दिया था ताकि उसे अपना शौक पूरा करने के लिए ज्यादा जगह मिले। इस कमरे की दीवारें, फर्श और यहाँ तक कि सीलिंग को भी परी ने अपनी खास पहचान दी थी। कमरे में चारों ओर कहीं कैनवास, कहीं लाल-पीले-नीले रंग-ब्रश से भरी ट्रे दिखती। कहीं रंगीले पेंसिल क्रेयान्स होते, तो कहीं कागजों पर अधखिंची लकीरें।
कैनवास और कागजों पर बनाई गई कई कलाकृतियाँ तस्वीरों में मढ़े जाने के लिए प्रतीक्षारत रहतीं। मेज पर स्कूल की किताबें पसर जातीं। यत्र-तत्र बिखरी ये चीजें सहज ही परी का परिचय दे देतीं। यही उसका अपना संसार था। छोटा-सा, जिसमें चारों ओर से बड़े-बड़े सपने झाँकते नजर आते।
कमरे की चार में से तीन दीवारों पर उसके ऐसे खास चित्र थे जो उसकी तीखी नजरों और सधी तूलिका की कहानी कह देते थे। चौथी दीवार पूरी की पूरी उसके रंगों की दुनिया थी। इस दीवार पर उसने जी-भरकर हाथ आजमाया था। एक दूसरे से जुड़े कई अलग-अलग आकार थे। गहरे-शोख, हल्के-फुल्के, अलग-अलग रंगों का सामंजस्य। इन सभी आकारों को सफेद सीमा-रेखाओं से बाँधा गया था।
सिर्फ सफेद ही एक रंग था जो सब आकारों में समान रूप से नजर आता था।
घर में मेहमान आते और परी के कमरे में कदम रखते तो उनकी विस्फारित आँखें नन्हीं बच्ची की दूरदृष्टि सराहते नहीं थकतीं। इस भव्य कोलाज़ को परी ने इस कदर करीने से सजाया-सँवारा था कि देखने वालों के मुँह से तारीफों की बरसात होती- “क्या बात है परी!”
“गजब!”
“अद्भुत!”
चाहे मेहमान हों, चाहे घरवाले, परी की अनुपस्थिति में इस कमरे में कोई नहीं जा सकता था। छोटा भाई, निक जिसे सब छोटू कहते थे, वह तो बिल्कुल भी नहीं। अपने लिए परी के बनाए इस नियम का पालन करते हुए छोटू ने भी परी के लिए कड़ा नियम बनाया था, बराबरी का नियम।
“परी, तुम भी मेरे कमरे में नहीं जा सकतीं।”
इस सख्ती का पालन दोनों भाई-बहन करते। अपनी-अपनी निजता का सम्मान। अगर कभी किसी की कोई चीज गुम जाती तो संदेह की धूरी एक दूसरे की ओर जरूर घूमती। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला देर तक चलता। आखिरकार वह गुम हुई चीज मिल जाती और दोनों एक दूसरे से सॉरी कहते। साथ ही ताकीद भी करते- “मैं रहूँ, तभी मेरे कमरे में आना वरना इधर देखना भी मत।”
वैसे इस घर में अकेले परी नहीं, हर सदस्य के चरित्र में कोई न कोई खास बात थी। पापा के पास घड़ियों का बड़ा संग्रह था। कई पुरानी, एंटिक घड़ियों के साथ रोलेक्स जैसी नैम ब्रांड, महँगी घड़ियाँ भी थीं, जो इस संग्रह को बेशकीमती बनाती थीं। उन विशिष्ट घड़ियों से संबंधित ब्रोशर, पत्रिकाएँ पापा के कमरे के बुक शेल्फ में थे। इन घड़ियों की सुरक्षा के लिए घर में ही एक छोटा-सा लॉकर था जो कई नंबरों के डालने के बाद पापा से ही खुल सकता था।
पापा अपना खाली वक्त इसी कमरे में घड़ियों के साथ गुजारते। दीवारों पर उनके हाथों में पहनी अलग-अलग घड़ियों की तस्वीरें थीं। केवल पापा का बायाँ हाथ और कलाई पर सजी घड़ी। अपनी हर घड़ी के जन्म से लेकर बाजार के सफर तक की कहानी पापा को मुँह जबानी याद थी।
दस वर्षीय छोटू का कमरा, उसके पसंदीदा खिलौने, लेगो के विभिन्न आकारों से भरा था। एफिल टावर, स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से लेकर न जाने कितने खास आकार और उनके साथ छोटू के अपने नए-नए प्रयोग। स्कूल के बाद के समय में वह रोज एक नया मॉडल बनाकर शाम तक तैयार कर देता। डिनर के बाद परिवार के सामने अपने नए प्रयोग की प्रस्तुति देता।
ऐसा लगता जैसे कोई बड़ा वास्तुविद सामने खड़ा हो! लेगो से बने बड़े-बड़े घर, उनके भीतर के सीक्रेट रास्ते और वहाँ तक पहुँचने के कोड। किसी हमले का सामना करते अंदर से निकलते रोबोट। धड़-धड़ मिसाइल दागते। छोटू के अगला बटन दबाते ही वापस अंदर चले जाते। ऐसे कई तरह के प्रयोग छोटू की दिनचर्या का हिस्सा थे।
मम्मी किसी बड़ी कंपनी में काम करती थीं। पूरे दिन काम करने के बावजूद अपने कुकिंग के शौक से घरवालों को बढ़िया खाना खिलातीं। स्वादिष्ट खाने से पेट पूजा करके सभी अपने-अपने कामों में लग जाते।
और फिर घर में नब्बे साल की दादी भी तो थीं। दादी की उम्र ही अपने-आप में एक म्यूज़ियम थी। न जाने क्या-क्या भरा था उनके अनुभवी दिमाग में! कहते हैं कि बूढ़ा होने पर आदमी भूलने लगता है। दादी के साथ उलटा था। उन्हें सब कुछ तेजी से याद आता था। फलां वर्ष में, फलां दिन क्या हुआ था। राजनीति से लेकर परिवार और समाज का हर पहलू।
उनकी अथक बातें सुनते-सुनते परी कहती- “दादी इन्सायक्लोपीडिया है।”
बैठक में रखी आराम कुर्सी उनका सिंहासन था। उससे नीचे उतरतीं तो बच्चों को अपने कमरे में देखकर ठुक-ठुक चलते, वहाँ पहुँच जातीं। उनके नए-नए प्रयोगों को सराहतीं, स्कूल-होमवर्क के बारे में पूछकर लौट जातीं। बच्चों को छेड़ना उनका प्रिय शगल था।
परी से कहतीं- “तुम्हारे पापा ने देर से शादी की वरना अभी तक मैं तुम्हारे बच्चे भी देख लेती। परी की परी को देखना कितना सुखद होता!” कहते हुए जोर से ठहाका लगातीं।
दादी हँसती बहुत थीं। हमेशा खुश रहने वाले बुजुर्गों की सूची में दादी का नाम सबसे ऊपर हो शायद! कुछ भी पूछो, बता देतीं। सबका कच्चा चिट्ठा उनकी जबान पर होता। जब कभी पापा के बचपन की बातें सुनातीं तो परी और छोटू को बहुत मजा आता। तब पापा खिसिया जाते। दोनों बच्चे जी-भरकर पापा को चिढ़ाते।
एक अनजानी जीत की खुशी दोनों के चेहरों पर दमकती।
दो-तीन साल पहले तक परी को दादी बहुत अच्छी लगती थीं। उन्हीं की गोद में खेलकर बड़ी हुई वह। लेकिन अब वह दादी से दूर-दूर रहती है। उनके लगातार हिलते हाथ-पैर देखकर उसे कुछ ज्यादा ही चिढ़ आती थी। मुँह में एक भी दाँत नहीं बचा था। बोलतीं तो मुँह से हवा निकलती। गिनती के सफेद बाल बचे थे सिर में। ठठाकर हँसते हुए उनके चेहरे के न जाने कितने रिंकल्स, झुंड के झुंड उभर कर सामने आ जाते।
परी दादी से कहती- “ये चेहरे की लकीरें मुझे अच्छी नहीं लगतीं।”
दादी का जवाब मस्ती से भरा होता- “अच्छी तो मुझे भी नहीं लगतीं बेटा, इसीलिए मैं आईना नहीं देखती। ऐसा करो परी, इन सिलवटों पर एक बार इस्तरी मार दो।”
“सिली दादी।”
परी के मुँह से ये सुनकर दादी की बाँछें खिल जातीं। एक दिन उसने दादी के पास बैठकर उनके चेहरे की झुर्रियों को गिनने की कोशिश भी की थी। यह कहते हुए कि दादी की उम्र नब्बे है तो ये भी नब्बे का आँकड़ा पार करेंगी।
दादी ने कहा- “ये नब्बे से कई गुना ज्यादा होंगी। एक में अनेक। और हर एक में छुपी हुई यादें। कई कहानियाँ भी– खुशियों की, मुश्किलों की। तुम्हारे दादाजी के प्रेम की। तुम्हारे पापा के बचपन की, पढ़ाई की, शादी की। तुम्हारे और छोटू के जन्म की। जब तुम पैदा हुई थीं, मेरा सबसे बड़ा सपना पूरा हुआ था। अपनी पोती को गोद में उठाने का चाव। मूलधन से ब्याज मिलने का बड़ा सुख!”
दादी अनवरत बोलती रहतीं और परी अपना पीछा छुड़ाकर वहाँ से भाग जाती।
पहले सोते समय परी और छोटू, दोनों बच्चे दादी से कहानियाँ सुनते थे। अब अरसा हो गया। वो सब कब का बंद हो गया। पिछले कुछ दिनों से दादी के पास जाते ही अजीब-सी गंध आने लगी थी। शायद डायपर में पी करती होंगी। चलती-फिरती तो हैं, बाथरूम तक क्यों नहीं जा सकतीं?
परी शिकायत करती तो दादी सफाई देतीं- “जब भी जोर से खाँसी आती है तो उसी में पेशाब निकल जाती है।”
दादी के इस तर्क पर परी नाक-भौं सिकोड़ती। उसे लगता दादी आलसी हो गईं।
दादी परी के मन की बात समझ जाती। कहतीं- “तुम भी डायपर में पी करती थीं, लेकिन मैं तुम्हारे पास ही सोती थी। हाँ, वह बाल गंध थी, ताज़ी बयार जैसी। यह बूढ़ी गंध, पककर सड़ते फल जैसी। जमाने का उसूल बड़ा जालिम है, बच्चे के आने की प्रतीक्षा और बूढ़े के जाने की!”
दादी की ऐसी बातें परी के सिर के ऊपर से निकल जातीं।
एक सप्ताह तक लगातार प्रतियोगिता के बारे में सोचते हुए उसने अपनी नोटबुक में कई नए आइडियाज़ लिख लिए थे। अपने बनाए हुए चित्रों को कमरे के चारों ओर लगाकर हर कोण से देखा था। लेकिन अभी तक वह पल नहीं आया था, जब यह लगता कि बस यही है वह।
मम्मी ने कई सुझाव दिए। कभी गगनचुम्बी इमारतों के, तो कभी घने जंगलों के। प्रकृति में छुपे खजाने को एक गहरी नजर भर की देर थी। पापा ने जास्पर और बैम्फ में देखे गए दृश्यों के बारे में याद दिलाया। नीले पानी की तलछट, पहाड़ों में जीवन, जैसे विषय भी सुझाए। हँसते हुए अपनी घड़ियों के अनमोल संग्रह का कोलाज बनाने की सिफारिश भी की।
छोटू ने कहा- “मेरे बनाए लेगो के चित्र बना, परी। ऐसा आकार तुझे कहीं नहीं मिलेगा। मैं इसका विशेषज्ञ हूँ।” नन्हे विश्वास का आकार विशाल था।
जवाब में परी ने सिर्फ “हूँ” कहा तो छोटू ने चट से अपनी शर्त रख दी- “हाँ, एक बात पक्की कर ले, अगर तू जीते तो आधे पैसे मेरे।”
“तू पूरे पैसे ले लेना छोटू, मुझे जीतने तो दे।”
और कोई समय होता तो एक भी पैसा न देने के लिए बहस में उलझ जाती परी। परन्तु इस समय उसकी सोच नया विषय तलाशने की जिद में एक ही दिशा में सोच रही थी। हर दिन स्कूल आते-जाते यही सोचती कि कैसे मैं एक अनूठा चित्र बनाऊँ। कलाकार की भूख थी, जब तक संतुष्टि न हो, कुछ न कुछ चुभता ही रहता। एक नन्हे काँटे की चुभन जैसा।
नींद के दौरान भी ये खयाल परी का पीछा न छोड़ते। आखिरकार, आज स्कूल से आकर तय किया कि अब बहुत हो गया। निर्णय ले ही लिया जाए। उसकी अपनी पसंद के पंद्रह चित्रों का चयन किया। इन सबको कतारबद्ध करके “इनी-मीनी-माइनी-मो-एक”, “इनी-मीनी-माइनी-मो-दो” से लेकर दस तक जाकर खत्म करना था। जहाँ भी हाथ रुकता उस चित्र को भेज देना था।
परी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और हौले-हौले गिनती शुरू की। दस बार वही क्रम दोहराने के बाद आखिर गिनती थम गई। जैसे ही उँगलियाँ टिकाकर उसने छुआ, वह कागज नहीं, किसी का हाथ था। उसने जल्दी से आँखों पर बँधी पट्टी हटाई। वह दादी का हाथ था जो सामने खड़ी मुस्कुरा रही थीं।
गुस्से से परी का चेहरा लाल हो गया। तमतमाते बोली- “दादी! आप बीच में क्यों आ गयीं! ये मेरा चित्र चुनने का आखिरी वक्त था।”
दादी के चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी- “तुमने चुन लिया। मेरे हाथ पर तुम रुकीं।”
परी ने नजरें उठायीं। दादी ने बगैर बाँहों वाली घुटनों तक की लाल रंग की सुंदर ड्रेस पहनी थी। होंठों पर हल्की-सी लिपस्टिक भी थी। पूरी आस्तीन के लंबे गाउन में रहने वाली दादी के हाथ-पैर सब आज खुले दिखाई दे रहे थे।
असंख्य सिलवटें। हाथों में, पैरों में, गले में। स्तब्ध-सी परी ने आँखें झपझपायीं।
“है न परी, लिविंग हिस्ट्री! जिंदा इतिहास!” खुलकर हँसते हुए दादी सामने रखी कुर्सी पर बैठ गईं।
“जिंदा इतिहास”, न जाने ये शब्द थे या टनटनाती घंटी। तूलिका चल पड़ी थी।
शरीर की लकीरों को कागज पर लकीरों में बदलते हुए परी की आँखें दादी की जीवंत हँसी को कैद कर रही थीं।
तमाम झुर्रियों में हँसी थी, लेकिन हँसी में कोई झुर्री नहीं थी।
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