कहानी संग्रह - नई आमद - जनवरी - 2025
कहानी संग्रह - नई आमद - जनवरी - 2024
कथाकार हंसा दीप की जन्मभूमि भारत और कर्मभूमि कैनेडा-अमेरिका है। लगभग चालीस वर्षों से अमेरिका और कैनेडा में हैं। उनका साहित्य सरहदों के पार भी स्वच्छ्न्द मन की विचरण का आकलन है। हंसा दीप की आकाशवाणी से प्रथम प्रसारित कहानी का समय 1978 है, जबकि उनकी प्रथम प्रकाशित कहानी 1979 में मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ में आई। आज उनकी कहानियाँ शतक पार कर चुकी हैं। उनका पीएच. डी. का विषय ‘सौंधवाड़ की लोक धरोहर’ था। कथाकार हंसा दीप के चार उपन्यास, नौ कहानी संग्रह और दर्जनों आलेख, संस्मरण, समीक्षाएँ, लघु कथाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी अनेक कहानियाँ पंजाबी तथा मराठी में अनूदित भी हो चुकी हैं। ‘चश्मे अपने अपने’ (2007), ‘प्रवास में आसपास’ (2019), ‘शत-प्रतिशत’ (2020), ‘उम्र के शिखर पर खड़े लोग’ (2020), ‘छोड़ आए वो गलियां’ (2022), ‘अधजले ठुड्डे’ (2024), ‘चेहरों पर टंगी तख्तियाँ’ (2023) और ‘मेरी पसंदीदा कहानियाँ’ के बाद ‘टूटी पेंसिल’ कथाकार हंसा दीप का नवम कहानी संग्रह है। संकलन में कुल अठारह कहानियाँ हैं- ‘टूटी पेंसिल’, ‘घास’, ‘उत्सर्जन’, अमर्त्य’, ‘श्वान’, ‘ज़िंदा इतिहास’, ‘आसमान’, ‘दो अलहदा छोर’, ‘सिरहाने का जंगल’, ‘विखंडित’, ‘हलाहल’, ‘कुहासा’, ‘अप्रत्याशित’, ‘हाइवे’, ‘आईना’, ‘पहिये’, ‘मूक सूरज’ और ‘पेड़’।
मेरी पसंदीदा कहानियाँ 2023
कहानी संग्रह - चेहरों पर टँगी तख्तियाँ 2023
नया कहानी संग्रह
चेहरों पर टँगी तख्तियाँ
जनवरी, 2023
"कहानी रचनाकार के अंतर्भावों को पाठकों तक पहुँचाती है। अभिव्यक्ति की छटपटाहट और रचनाकार की संतुष्टि सृजन के महत्वपूर्ण आयाम होते हैं। हंसा जी के संग्रह की सभी कहानियाँ सहज और सरल भाषा में अपने आप में बहुत कुछ कह जाती हैं। अलग-अलग विषयों को लेकर लिखी गयीं संग्रह की चौदह कहानियों में सामाजिक सरोकारों का दायरा काफी विस्तृत हुआ है। उनके पात्र आसपास की रोजमर्रा की जिंदगी से संबंध रखते हैं और कथानक का ताना-बाना बुनते समय उसे स्वयं जीते हैं। वे निरे अपने लगते हैं और कहानी पढ़ते समय पाठक उनमें अपने आप को देखने लगता है।"
मंजु श्री - संपादक कथाबिंब
उम्र के शिखर पर हैं या शिखर पर पहुँच रहे हैं, यह मन तय करता है। यह ऐसी चढ़ाई है जिस पर चढ़ते हुए तन थकने लगता है पर मन की दृढ़ता सुनिश्चित करती है कि अभी और सक्रिय रहना है। जीवन के इस मोड़ पर खड़े कुछ लोग मौन हो जाते हैं या फिर शोर करते हैं किंतु जी भरकर जी नहीं पाते। उम्र के शिखर की ओर बढ़ते लोगों में स्वयं को शामिल करना भी एक चुनौती है। एक हरे-भरे जीवन के बाद के इस अहसास ने मुझे इस पुस्तक के प्रारूप को जन्म देने के लिये प्रेरित किया। महसूस हुआ कि उम्र के शिखर पर खड़े लोगों पर लिखी गयी अपनी कहानियों को एक संग्रह में एकत्र किया जाए। बोलती झुर्रियाँ, झुर्रियों की जबानी, सिलवटी चेहरे आदि कई शीर्षक आते-जाते रहे। थकान की अपेक्षा ताजगी देने वाले शब्द की खोज थी। अंतत:, जीवन की सार्थकता को अर्थ देता शब्द शिखर इस पुस्तक के लिये उत्तम प्रतीत हुआ।
"कथाकार के लिए उसकी स्मृति और जीवनानुभव उसकी बहुमूल्य पूँजी होते हैंl अपनी इसी पूँजी के बूते पर वह अपना कथा संसार रचता हैl वह जो देखता-सुनता और भोगता है और जिस परिवेश में उसका जीवन गुजरता है, उसका प्रभाव निश्चित ही उसकी कृतियों पर पड़ता हैl इन कहानियों की संवेदना भारत की धरती से जुड़ी हैl हंसा जी ने अपने जीवन के चालीस साल भारत की इसी धरती पर गुजारे हैंl जाहिर है उसकी छाप उनकी कहानियों में मिलेगी l ‘छोड़ आए वो गलियाँ’ कहानी संग्रह की सभी कहानियाँ मेघनगर-झाबुआ अंचल से जुड़ी हैं l इन कहानियों में भारत के इस आदिवासी अंचल की गंध हैl इन कहानियों के ताने-बाने इसी आदिवासी बहुल क्षेत्र से लिए गए हैंl यहाँ के पात्र, बोली-बानी, कहावतें, मुहावरे, गरीबी, अपराध, शोषण आदि सब इन कहानियों में इसी मिट्टी के हैंl यहाँ जैसे स्त्री-पुरुष हैं, जैसी जलवायु, जैसा रहन-सहन है; उन सबका जीवंत चित्रण वैसा ही कहानियों में हुआ है l हंसा जी ने अपनी सृजनात्मकता से इन कथाओं को सजीव बना दिया हैl ये सब इस अंचल के हाड़-मांस के पात्र हैं, कपोल-कल्पना नहींl"
समीक्षक की टिप्पणी
“लंगोटी को डायपर कहो या कपड़े का टुकड़ा, शब्द बदलने से अर्थ तो नहीं बदलते। यहाँ लंगोटी आज भी हज़ारों लोगों के तन को ढँकने का एकमात्र कपड़ा है। बच्चे ही नहीं कई बड़ों को भी यही पोशाक नसीब हो पाती है। यह कोई फैशन नहीं है। अपने सिक्स पैक दिखाने के लिए उतारी गयी कमीज़ नहीं है। यह उनके जीवन की मजबूरी है। ऐसी मजबूरी जो एक टाईनुमा कपड़े को गले में नहीं कमर में जगह देती।” गरम भुट्टा
“सालों बाद भी वे सारी बातें वैसी की वैसी सामने आ रही हैं जैसी मेरे बचपन में आती थीं शायद उससे भी कहीं ज़्यादा। माँ बनकर यदि मैं इतनी टोका-टाकी कर रही हूँ तो यह बात तो पक्की है कि नानी बनकर मेरे अंदर की माँ की माँ ‘प्राब्लम नानी’ हो ही जाएगी। इसीलिये मैं नानी से नाराज हूँ, बहुत नाराज हूँ, वे चली भी गयीं तो क्या मुझमें खुद को छोड़ कर गयी हैं।” अक्स
“चाहती तो उसे गले लगाकर अपना अपराध बोध कम कर सकती थी लेकिन हौसला नहीं जुटा पाई। बगैर कुछ जाने, बगैर कुछ समझे जितने आरोप किसी के ऊपर लगाए जा सकते हैं, मैं लगा चुकी थी। उस बेरुखी से, उस बेहूदी सोच से मैंने खुद को अपनी नज़रों में नीचे गिरा दिया था, पर मेरे जंगलीपन को इंसानियत के घेरे में संजो कर वह मेरी अनर्गल सोच पर पूर्णविराम लगा गयी थी।” पूर्णविराम के पहले
(इसी पुस्तक से)