सैद्धांतिकता के पीछे एक व्यावहारिक पहलू पाठ्यक्रम-पाठन-पठन

विज्ञान में जिस तरह थ्योरी को समझाने के लिये प्रेक्टिकल कक्षाओं की अनिवार्यता तार्किक है वैसे ही शिक्षण संस्थानों से जुड़ी कई सैद्धांतिक संहिताएँ अपने व्यावहारिक पहलुओं के साथ एक नये रूप में उजागर होती हैं। भारत में विक्रम विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों विदिशा, ब्यावरा, राजगढ़, धार में तकरीबन ग्यारह साल के अध्यापन के अनुभव के बाद पाठ्यक्रम की सीमा-रेखाओं से मैं भलीभाँति परिचित थी। निर्धारित पाठ्यक्रम मानक मार्गदर्शन होता है कि पाठन-पठन का रास्ता कैसे पार करना है। पाठ्यक्रम-पाठन-पठन इन तीन अलग-अलग शब्दों में शैक्षणिक संस्थान, शिक्षक और छात्र का जीवन बंधा हुआ होता है। इनसे जुड़े सभी रास्तों को पार करते हुए देशों की सीमाओं से परे विभिन्न शिक्षा विभागों में एक बात समान दिखाई दी वह यह कि कागज पर बनी नीतियों की नियति अंतत: छात्रों और शिक्षकों के हाथों में होती है।
कैनेडा के टोरंटो शहर के दो जाने-माने विश्वविद्यालयों में शिक्षण के कई रूपों से मेरा परिचय हुआ। सन् दो हजार चार से यहाँ की कक्षाओं में पढ़ाना शुरू किया तो एक बड़ी चुनौती थी सामने। भारत में अपनी एमए हिन्दी की कक्षाओं को पढ़ाना उतना कठिन नहीं था जितना यहाँ के अंग्रेजीभाषी छात्रों की कक्षा को अपने साथ हिन्दी पढ़ाते हुए दो से तीन घंटों तक की कक्षा में बांधे रखना। यहाँ के नवीनतम माहौल में भारत के अनुभवों ने एक ओर जहाँ विश्वविद्यालयीन कार्यप्रणाली को ठीक से समझने का अवसर दिया वहीं अपनी कार्यशैली को उसके अनुरूप ढालने के लिये प्रतिबद्ध होना स्वीकार किया। जैसा देश वैसा भेष करने में अपनी अंदर तक पैठी हुई लकीरों को तोड़ना साहस और धैर्य की बड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होने जैसा था।
यहाँ के भाषा विभागों में काम करने से शिक्षा पद्धति का एक अलग स्वरूप देखने और समझने का अवसर मिला। “कैरक्यूलम मैपिंग” एक “फ्रेम-वर्क” देता है, तसवीर में बंधा एक दिशा निर्देश। कोर्स में मौखिक, लिखित असाइंमेंट, टेस्ट, फाइनल परीक्षाएँ, कक्षा में उपस्थिति-हिस्सेदारी (पार्टीसिपेशन) का प्रतिशत निर्धारित होता है। मौखिक-लिखित शिक्षण के लिये निर्धारित बिन्दुओं को आधार बनाकर विषयवस्तु को शिक्षक अपनी योग्यता से किस तरह एक छात्र के भीतर रोपता है यही इस प्रोग्राम को सफल-असफल बनाने की कुंजी होता है। योजनाएँ व तकनीक संस्थानों की होती हैं, क्रियान्वयन शिक्षकों द्वारा अपनी योग्यतानुसार होता है। जितनी निष्ठा से शिक्षक इसे कार्यान्वित करते हैं उतनी ही निष्ठा से छात्र उत्तरोत्तर प्रगति करता है व संस्थान की प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी होती है। प्रत्येक कोर्स के लिये निर्धारित इन निर्देशों के अनुरूप पाठ्यपुस्तकों का निर्धारण या लेखन स्वयं शिक्षक करता है वह चाहे तो अलग-अलग पुस्तकों से या चाहे तो अपना “कोर्स-पैक” तैयार करके अपनी कक्षाओं को लाभान्वित कर सकता है। भारत में पाठ्यपुस्तकों का चयन भी पाठ्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है व जिसमें अधिकांशत: बहस के मुद्दे होते हैं कि किस लेखक की कौनसी पुस्तक को किस कक्षा के पाठ्यक्रम में लिया जाए। सरकारी व गैर सरकारी दखलंदाजी से परे यहाँ के संस्थानों ने कोर्स के लिये कई बिन्दुओं से गुजरती रेखाएँ तय करके यह आजादी शिक्षकों को दे रखी है जिसके तहत शिक्षक की जिम्मेदारियों में बढ़ोतरी तो होती ही है साथ ही उसे अपनी शिक्षण शैली के अनुकूल पाठ्यपुस्तक के चयन का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
यह कहा जा सकता है कि उचित पाठ्यक्रम और समय की आवश्यकता के साथ बदलते “कोर्स-पैक” और उनमें संशोधन इन संस्थानों की लोकप्रियता का एक महत्वपूर्ण आधार है, नींव है जिस पर समूची शिक्षा पद्धति का भवन टिका है। प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ संस्थानों के प्रमुखों द्वारा चहारदीवारी में बैठकर इन सीमा रेखाओं को तय कर देना पर्याप्त है, उनका व्यावहारिक महत्व और कक्षा में इनके औचित्य और इनके पेचीदा घटकों को जो शिक्षक समझाने का प्रयास कर रहे हैं क्या वे इसके लिये पर्याप्त प्रशिक्षित हैं। अगर नहीं हैं तो क्या संस्थान ने इनकी नियुक्ति करके अपने उत्तरदायित्व से पल्ला झाड़ लिया है। बाजार की मांग के अनुरूप पूर्ति करना अगर अर्थशास्त्र का आधारभूत सिद्धांत है तो बदलते समय के साथ पाठ्यक्रम में बदलाव भी शिक्षण संस्थानों की योजनाओं का एक महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए ताकि बाजार की मांग के अनुरूप वे प्रतिभाओं की पूर्ति कर सकें। चाहे फिर वे भाषा की कक्षाएँ हों या किसी और विषय की, बदलाव की गुंजाइश हर कहीं दिखाई देती है। इस बदलती तकनीकी दुनिया में हर दिन नयी खोज और नयी तकनीक का आना हर विषय-वस्तु को उसके अनुरूप बदलने के लिये नया कैनवास, नया धरातल देता है।

पाठ्यक्रम की आधारभूत रेखाओं के बीच नये सत्र की नयी कक्षा का माहौल कुछ बदलाव चाहता ही है। संस्थान का बनाया नक्शा शिक्षक की दूरदर्शिता के द्वारा बदलाव के नये आयाम को अपनाते हुए अपने छात्रों के लिये कोर्स की उपयोगिता सिद्ध कर पाता है। इस निरंतर बदलाव की प्रक्रिया को यहाँ के शैक्षिक नीति विशेषज्ञों ने भलीभांति समझकर इनसे जुड़ी हुई सारी कड़ियों को एक दूसरे से इस तरह जोड़ कर रखा है कि कहीं पर भी जरा-सी चूक होने का अंदेशा नहीं होता। पाठ्यक्रम की इस कसावट के बाद पाठन और पठन दोनों घटकों के आपसी संबंधों का इन संस्थानों की गतिविधियों पर गहरा असर होता है। यानि शिक्षक व छात्र की भूमिका किस तरह शिक्षा के स्तर को ऊँचाइयों तक ले जाती है। विश्वविद्यालय की बात करते हुए मैं शिक्षक शब्द का प्रयोग इसलिये कर रही हूँ कि शुरू से आखिर तक कई पायदानों पर चढ़ते हुए सालों के अनुभव के बाद ही वह प्रोफेसर बन पाता है वरना विभाग द्वारा “इन्स्ट्रक्टर” शब्द ही अधिक इस्तेमाल होता है।
हर एक सत्र के अंत में जहाँ छात्रों का मूल्यांकन शिक्षक करते हैं तो वहीं दूसरी ओर शिक्षकों का मूल्यांकन छात्र करते हैं। शिक्षण संस्थानों का भविष्य छात्रों में संस्थान की लोकप्रियता पर टिका होता है वहीं छात्रों और शिक्षकों का भविष्य भी एक-दूसरे के समन्वयात्मक संबंधों से जुड़ा रहता है। अमूमन एक साल, तीन साल और पाँच साल के प्रोबेशन को पूरा करते हुए शिक्षक स्थायित्व की ओर बढ़ने लगता है व कई सीढ़ियाँ पार करते हुए अंत तक उसे प्रोफेसर का पद मिल पाता है। इस कवायद में शिक्षक का सबसे बड़ा रोल यह होता है कि वह संस्थान की आधारभूत योजनाओं का क्रियान्वयन करने में समर्थ है भी या नहीं। नि:संदेह हर शिक्षक उच्च डिग्रीधारी व योग्य होता है लेकिन अपने अथाह ज्ञान को छात्रों की आवश्यकतानुरूप उन तक पहुँचाना एक बड़ी कला है। इस कला में पारंगत होने के लिये कई सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाती हैं। सेमिनार, कांफ्रेंस, वर्कशाप कई संसाधन उपलब्ध होते हैं आगे अपने रास्ते बनाने के लिये। योग्यतानुसार वह उन सबमें अपने को ढाल ले तो ठीक वरना तलवार सिर पर सदा लटकती रहती है। कई बार शिक्षकगण एक या दो सत्र भी पार नहीं कर पाते और ससम्मान बाहर कर दिए जाते हैं, कुछ इस तरह कि वार्षिक अनुबंध के खत्म होते ही पुन: अनुबंध भेजने की प्रक्रिया को रोक दिया जाता है।
प्रोग्राम असेसमेंट, निरंतर सुधार व बदलाव आदि घटक आगे के अध्ययन के लिये जहाँ छात्रों का पथ प्रदर्शन करते हैं वहीं शिक्षकों को भी पर्याप्त अवसर मिलता है अपनी योग्यताओं में, तकनीकी योग्यताओं में दक्ष होने का। यहाँ की तमाम शैक्षणिक संस्थानों ने अपने तई अपने-अपने डिग्री प्रोग्राम के अनुकूल आधारभूत मार्गदर्शिका तैयार की हुई है जिनका अनुकरण और अनुसरण शिक्षक अपनी शैली के समन्वय के साथ करते हैं, छात्र अपनी शैली में ग्रहण करता है और विभागाध्यक्ष की अपनी शैली भी विभागों को तराशने में मूल्यवान सहयोग देती है।
अर्थवान है हर शिक्षक का इससे जुड़ना, छात्रों को जोड़ना और समय व कक्षा के अनुकूल समानांतर बदलाव की गुंजाइश रखना। सत्र की हर कक्षा में क्या पढ़ाया जाएगा इसकी विस्तृत जानकारी, हर टेस्ट और हर क्विज़-असाइंमेंट की तारीख-समय सब कुछ सत्र के पहले सप्ताह में विभाग की मंजूरी के साथ छात्रों को दे दिया जाना अनिवार्य है। इतना सुनियोजित “कोर्स प्लान” बाद में शिक्षक व संबंधित विभाग को किसी भी दुविधा से बचाने में सक्षम होता है।
भारत में जब अस्सी के दशक में हम पढ़ रहे थे तब सालों से वही परम्परागत प्रणाली चल रही थी। कला, वाणिज्य और विज्ञान संकायों में स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं में छात्रों को कुछ पता नहीं होता था कि आज उन्हें क्या पढ़ना है। विश्वविद्यालयीन स्तर पर साल के अंत में तीन घंटे का प्रश्नपत्र हमारा भाग्य निर्धारित करता था। बदलते समय के साथ आज सेमिस्टर पद्धति तो आ गयी है परन्तु पाठ्यक्रम में बदलाव की धीमी गति योग्य छात्रों को पलायन के लिये बाध्य करती है। बाजार की माँग के अनुसार पूर्ति नहीं होती और कई डिग्रीधारी छात्र नौकरी की तलाश में भटकते रहते हैं। यही कारण है कि नार्थ अमेरिकन विश्वविद्यालयों में भी आमतौर पर कई भारतीय छात्र अलग-अलग प्रोग्रामों में देखे जा सकते हैं जहाँ वे अपनी योग्यतानुसार आसानी से दाखिला पा लेते हैं और प्रारंभ के कुछ महीनों के बाद छोटा-मोटा काम करके अपना खर्च भी खुद उठाने में सक्षम हो जाते हैं।
तकरीबन सभी शिक्षण संस्थानों के भाषा विभागों में चीनी, अरबी, फारसी, हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, जर्मन, फ्रेंच, इटालियन, स्पेनिश, लेटिन जैसी कई भाषाएँ “मेजर” और “माइनर” प्रोग्राम की अपने विषय के इतर कोर्स लेने की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। एक ही विभाग के छत्र तले पढ़ायी जा रही अलग-अलग देशों की भाषाओं में तारतम्य के लिये “कैरक्यूलम मैपिंग” है जो भाषा विभाग में पढ़ायी जा रही हर भाषा के लिये काम करता है। इसी के साथ “कोर्स आउटलाइन्स” में समानता, निर्धारण पाठ्यक्रम में समानता तथा हर भाषा के लिये “नेटिव स्पीकर” और “नान नेटिव स्पीकर” के लिये कुछ निर्धारित शर्तों का पालन करते हुए “प्लेसमेंट टेस्ट” लिया जाता है। उसके माध्यम से तय किया जाता है कि छात्र किस कोर्स के लिये योग्य है।
उदाहरण के लिये स्नातक कक्षाओं के पहले वर्ष के छात्रों के लिये “बिगिनर्स कोर्स” है उसमें निर्धारित पाठ्यक्रम की खास बातें हैं कि यह भाषा छात्र के लिये पूर्णत: नयी भाषा है। कोर्स के अंत तक छात्रों को रोजमर्रा की बोलचाल की भाषा का ज्ञान हो जाना चाहिए जिसमें पठन-लेखन-बोलचाल और श्रवण ये मापदंड हैं। इन मापदंडों पर खरा उतरने के लिये शिक्षक को पूरी स्वतंत्रता है कि वह किस सामग्री का उपयोग करके अपने छात्रों को उतना वांछित ज्ञान दे सके। भाषा विभाग में हर भाषा में इस कोर्स को पढ़ाना आधारभूत कारणों से महत्वपूर्ण है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि एक सत्र की अवधि में नयी भाषा का, नयी लिपि का और नयी व्याकरण का ज्ञान देना किसी अप्रशिक्षित शिक्षक के बस की बात है ही नहीं। कई शिक्षक प्रारंभ में बिगिनर्स की मानसिक स्थिति को न समझकर कक्षा में न समझ पाने वाले छात्रों की भीड़ एकत्र करते जाते हैं। वे अपनी डॉक्टरेट की भाषा को छात्र की आवश्यकतानुसार सरल नहीं कर पाते और अपनी नौकरी को गँवा बैठते हैं। एक नयी भाषा सीखने वाले के लिये शिक्षक को अत्यधिक धैर्य और छात्र के स्तर पर जाकर पढ़ाने की आवश्यकता होती है। जितना आसान सुनने में लगता है उतना ही मुश्किल है इस कक्षा के छात्रों के हर प्रश्न का जवाब देना। बारह से तेरह साल शिक्षा प्राप्त करते हुए जब छात्र इन कक्षाओं में एक नयी भाषा को सीखने का प्रयास करता है तो कई मुद्दे उठते हैं उसके जेहन में, “ऐसा क्यों”, “ऐसा क्यों नहीं” और तब इन छात्रों की कठिनाई को समझ पाने वाला शिक्षक ही टिक पाता है वरना सालभर बाद खरा-खरा “छात्र मूल्यांकन” उन्हें बाहर कर देता है।
शिक्षण संस्थान हर कोर्स के अंत में तकरीबन पच्चीस से तीस प्रश्न गुप्त रूप से अनिवार्य सर्वे करके पूछता है कि शिक्षक ने कक्षा में क्या-क्या किया। समय-समय पर टेस्ट आदि की जानकारी दी, उसी के अनुरूप पढ़ाया, पढ़ाने के लिये कौन-कौन सी विधियाँ उपयोग में लायी गयीं, छात्रों के सवालों के माकूल जवाब दिए गए आदि अनेक प्रश्न जो सीधे-सीधे नहीं पर घुमा-फिरा कर शिक्षक की काबिलियत का कच्चा चिट्ठा संस्थान को दे देते हैं। छात्र उस अनाम अनिवार्य शिक्षक मूल्यांकन में पसंदीदा सफल शिक्षक की खूब तारीफ-निंदा करते हैं। यही आकलन एक हद तक उस शिक्षक का भविष्य तय करता है।
पाठ्यक्रम व पाठन के साथ जुड़ी कड़ी पठन के बारे में बात करते हुए मैं छात्रों की स्कूल से निकलकर विश्वविद्यालय की सीढ़ी पर कदम रखने के अनुभवों की एक छोटी-सी झलक देना चाहूँगी। हाईस्कूल से निकले उच्चतम अंक प्राप्त किए छात्र जब अपनी विशिष्ट योग्यता के साथ नामी-धामी संस्थान में प्रवेश पाते हैं तो उनके आत्मविश्वास को चरम पर पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता। गगनचुम्बी आशाओं के साथ मुख्य विषयों के पहले टेस्ट में अपने अंक देखकर कई छात्र सकपका जाते हैं। हर तरफ से छन-छन कर उस संस्थान में आयी प्रतिभाएँ जब आपस में प्रतियोगी होती हैं तो चयन श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम के बीच से होता है। ऐसे में कई योग्य छात्र धराशायी हो जाते हैं, अपने आत्मविश्वास को खोकर बाहर हो जाते हैं और कई दान से मिले अंकों से चार साल तक रोते-गाते अपने निर्धारित डिग्री कोर्स को खत्म कर पाते हैं। इन मानसिक और आर्थिक तनावों के बीच भाषा की कक्षाएँ उन्हें कुछ राहत दे सकती हैं तथा एक अलग वातावरण में भाषागत नयी जानकारियाँ उनके विश्वविद्यालयीन जीवन में ताजगी लाकर उन्हें आशावादी बनाने में सफल हो सकती हैं।
“बिगिनर्स कोर्स” के बाद “इंटरमीडिएट कोर्स” में जहाँ भाषा की व्याकरण खत्म की गयी वहीं से आगे की व्याकरण को जोड़ते हुए अनुच्छेद लेखन पर फोकस करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश होती है। यहाँ तक आते-आते भाषा विशेष के लिये छात्र की हिचक-संकोच कम होना चाहिए वरना वह आगे नहीं बढ़ पाएगा और “कोर्स ड्राप” कर देगा। नयी ग्रामर के साथ नयी शब्दावली, नयी धरा पर नये विचार लाती है। उसका विश्वास जागने लगता है कि अब वह भाषा की आधारभूत जानकारी से परिचित है।
एक ही भाषा के तीन अलग सेक्शन हों व अलग-अलग शिक्षक हों तो अनिवार्य है कि पाठ्यक्रम के साथ पाठ्यपुस्तक भी समान हो, सभी के परीक्षा प्रश्नपत्र भी एक ही हों जो सभी शिक्षक मिलकर फाइनल करें साथ ही सभी के रिजल्ट भी एक ही समय पर घोषित किए जाएँ। हर भाषा के हर कोर्स में कुछ इसी तरह निर्धारित बिन्दु एक ही भाषा के विभिन्न छात्रों और विभिन्न शिक्षकों में सामंजस्य बैठाने की सफल कोशिश करते हैं।
“रीडिंग्स” कोर्स तृतीय वर्ष के छात्रों के लिये संबल का काम करता है जिसमें भाषा विशेष के साहित्य की आसान रचनाओं के अंश लिये जाते हैं। हिन्दी की लोकप्रिय पंचतंत्र की कथाएँ, लोक कथाएँ जैसी सामान्य और रोचक पठन सामग्री के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने की कोशिश की जाती है। ऐसी सामग्री जो विषय को रोचक बनाती है, शिक्षाप्रद होती है साथ ही सरल होती है। बड़ी कहानियाँ या कविताएँ छात्रों को डरा देती हैं। बजाय इसके एक छोटी-सी फिल्म दिखाकर उसके बारे में लिखने को कहा जाए तो वे अपने छोटे से निबंध में आसानी से अपनी बात लिख सकते हैं। कहने में कोई संकोच नहीं है कि हिन्दी में आसान भाषा में लिखा साहित्य का कोई टुकड़ा ढूँढना भी टेढ़ी खीर है जहाँ छात्रों के स्तर को समझते हुए उन्हें समझाया जा सके। कई बार स्थानीय संस्कृति से जुड़ी सीधी-सरल रचनाओं को लेना अधिक सुविधाजनक लगता है।
“एडवांस” व “मीडिया एंड कल्चर” चौथे वर्ष के कोर्स हैं जो समानांतर चलते हैं व सर्वाधिक लोकप्रिय भी होते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है कि चौथे वर्ष के अंत तक छात्र ग्रेजुएट होने के करीब आकर तनाव रहित हो जाता है। इस समय तक अपनी नौकरी का इंतजाम कहीं न कहीं कर ही लेता है। शिक्षा के धरातल से एक प्रोफेशनल धरातल पर अपने प्रवेश और पैसों की खींचतान से लगभग मुक्ति मिल जाती है। मीडिया एंड कल्चर में बॉलीवुड, टीवी, और पत्र-पत्रिकाओं के रोचक और रोमांचक अंशों का विषयवस्तु में शामिल होना इस कोर्स को हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कोर्स में बदल देता है। छात्र हिन्दी फिल्मों, अभिनेता और अभिनेत्रियों के साथ संस्कृति के बारे में लिखने के लिये अपनी हिन्दी को एक अलग स्तर पर ले आता है।
जब ये कोर्स थोड़े अदल-बदल के साथ हर भाषा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो नि:संदेह संस्थान को सबसे अधिक लाभ चीनी भाषा की कक्षाओं से होता है जहाँ हर कक्षा में जगह पाने के लिये छात्रों की होड़ होती है, प्रतीक्षा सूची होती है। इसकी वजह को उनकी जनसंख्या के आधार पर फोकस करके हम छूट नहीं सकते। इसकी खास वजह यह भी है कि वे अपनी भाषा को कितना मान-सम्मान देते हैं। दूसरी ओर सबसे कम लाभ हिन्दी, उर्दू, संस्कृत और लेटिन में होता है। क्षेत्रीय भाषाओं में बँटे हमारे देश की भाषा हिन्दी अपनी कहानी कहने लगती है जब कई छात्र यह कहकर फ्रेंच और इटालियन सीखना पसंद करते हैं कि “हिन्दी में हमारा कोई भविष्य नहीं।” जिस घर में वे पले-बढ़े वहाँ अंग्रेजी के साथ उनकी अपनी क्षेत्रीय भाषा बंगाली, पंजाबी, तमिल, गुजराती और अन्य भाषाओं में से एक रही तो हिन्दी के लिये उनकी रुचि न के बराबर होती है।
यह हिन्दी के वर्चस्व के लिये रोना-गाना नहीं है बल्कि कड़वा सत्य है जिसे हम हिन्दी भाषी जितनी जल्दी स्वीकार कर लें उतना ही बेहतर होगा। विदेशों में युवा पीढ़ी में हिन्दी को जीवित रखने में सबसे अधिक योगदान अगर किसी का है तो वह है हमारे हिन्दी फिल्म जगत का। हिन्दी गीतों पर थिरकते पैर और कुछ नहीं तो कम से कम इन संस्थानों में हिन्दी की उपस्थिति का आभास तो दे ही देते हैं। हाई स्कूल, मिडिल स्कूल और प्रायमरी स्कूलों में भी हिन्दी कक्षाओं में बीस से अधिक छात्रों की उपस्थिति कक्षाओं को निरंतर चलने में मदद करती है। यहाँ भी वही मुद्दा है कि हिन्दी पढ़ाने वाले शिक्षक “अआइई” पढ़ाते हुए वैसे ही पढ़ाते हैं जैसे सालों पहले उन्होंने भारत में हिन्दी पढ़ना शुरू किया था। “इ” इमली का और “ई” ईख का पढ़ाकर मूल अंग्रेजी भाषी मासूम बच्चों की रुचि को मार देते हैं। बच्चे हिन्दी से कन्नी काटते हैं और ये कक्षाएँ भी बंद होने लगती हैं।
शिक्षकों को समय और स्थान के अनुसार अपनी शिक्षण शैली में परिवर्तन का आभास नहीं होता व तब स्कूल बोर्ड के समुचित उदार प्रयासों के बाद भी अपनी इस उपेक्षा के कारण हिन्दी कक्षाएँ व हिन्दी शिक्षक दोनों ही अपना स्थान खत्म कर लेते हैं। भारत से बड़े-बड़े साहित्यकार और हिन्दी दाँ जब यहाँ आते हैं, अपनी यात्रा को यूनिवर्सिटी के प्रागंण में आकर एक नया आयाम देना चाहते हैं, अपने परिचय में विदेश का तमगा जोड़ने का सुनहरा अवसर गँवाना नहीं चाहते, पूछते हैं कि “आप हिन्दी के किस काल के साहित्य-साहित्यकार को पढ़ा रहे हैं।” तब हमारे उत्तर उन्हें गुस्सा दिलाते हैं। तिरस्कार और उपेक्षा से हमें कहा जाता है कि “आप अआइई पढ़ाते हैं, हम तो भई एमए, एमफिल से नीचे की कक्षा में कभी नहीं जाते।” इन कथित हिन्दी प्रेमियों के बड़े-बड़े दिमागों में हिन्दी का अंत तो है मगर प्रारंभ नहीं। उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता कि वे भारत से बाहर हैं, जिस देश की मुख्य भाषाएँ फ्रेंच व अंग्रेजी है उस देश में दूसरी सभी भाषाओं का ज्ञान सिर्फ कार्यसाधक ज्ञान ही हो सकता है।
पाठ्यक्रम-पाठन-पठन के बारे में हमारी सोच को बदलना समय की मांग है क्योंकि आज का विश्वविद्यालयीन छात्र बहुत होशियार व सजग है। वह अपनी डिग्री के लिये एक मोटी राशि शिक्षण संस्थान को देता है तो बदले में अपने भविष्य को बनाने के सपने संजोता है। कक्षा में वह अपना गृह-कार्य करके आता है। एक कुशल शिक्षक के लिये संस्थान के पाठ्यक्रम के साथ छात्रों की अपेक्षाओं को निबाहना वैसा ही है जैसा शादी के समय सात फेरों की कसमों को निबाहना। वे कसमें फेरे लेते समय ही अच्छी लगती हैं बाद में उनके लिये हमारे मन मस्तिष्क की सोच अलग प्रतिक्रिया तो देती है साथ ही उपेक्षित सोच भी देती है। तब रिश्तों में वह मिठास नहीं बचती। ठीक वैसा ही हश्र हिन्दी कक्षाओं का भी होता है जब “अआइई” पढ़ाने की हमारी जिम्मेदारी को हम हल्के में लेते हैं तब कोई भी संस्थान या कोई भी पाठ्यक्रम हमें वहाँ तक नहीं पहुँचा सकता जहाँ तक हमें होना चाहिए। जब हम भी हिन्दी को पेचीदा सिद्धांतों से मुक्त कर व्यावहारिकता की दृष्टि से विस्तार देने का प्रयास करेंगे तो शायद सकारात्मक परिणामों में वृद्धि कर पाएँगे।
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