इलायची
शौकत मियाँ को सब प्यार और सम्मान से शौकी चाचा कहते थे। वे पान बहुत खाते थे। पान के स्वाद से बता देते थे कि कौन सा पत्ता है बंगाली, मद्रासी या कलकतिया। मुँह में पान होता तो एक ओर दबा कर चाय भी पी लेते थे। भारत के स्वच्छता अभियान में उनकी ओर से सबसे बड़ा योगदान यह था कि वे अब अपनी पीक थूकते नहीं थे बल्कि अंदर जाने देते थे। कहते थे – “हम अपने पेट को कूड़ादान बना लेंगे पर पान के बगैर नहीं रहेंगे।”
आस-पड़ोस वाले मिलते तो कहते – “चाचा छोड़ दें अब पान खाना, पुलिस पकड़ कर ले जाएगी किसी दिन।”
मुँह में पान रखकर उनका बोलने का अंदाज़ भी एक खास तरह का होता था – “लंबा चलकर जाते हैं सड़क की गुमटी तक पान लाने, ऐसे कैसे खाना छोड़ दें। पान खाना छोड़ भी दें तो इस बदबू मारते मुँह का क्या करें।”
“चचा, उसके लिये अब नयी चीज़ें हैं। गम खाया करो गम।”
“गम तो खाते आ रहे हैं ताउम्र, अब और कितने गम खिलाओगे!”
“मेरा मतलब है च्यूइंगम… क्या चाचा आप भी न…”
“मियाँ उन दिनों हमारे जमाने में च्यूइंगम नहीं होती थी। होती भी हो पर हमें नहीं मिलती थी। हम ऐसे किसी नाम से परिचित ही नहीं थे। इसलिये जब कभी मुँह खराब लगता था अपना या किसी और का तो मुँह में इलायची रख लेते थे। पान खाना तो अब्बूजान के जाने के बाद शुरू हुआ वरना तो कोई बात ही नहीं थी। इलायची की खुशबू में हर तरह की बदबू दब जाती थी।”
चाचा के इस कथन का जवाब कोई नहीं दे पाता। उनकी अपनी फिलासफी थी। जानते थे कि किसी के मुँह से आ रही बदबू को तो वह अपनी पान खाने की आदत से और अपनी इलायची से दबा सकते थे लेकिन किसी के मन से बू आने का पता कैसे लगे, किसी की गंदी सोच का पता कैसे चले अभी तक इसका तोड़ नहीं ढूँढ पाए। बहुत देखा है अपने इस जीवन में लोगों को अपने चेहरे बदलते हुए। धर्म के नाम पर, धंधे के नाम पर और जात-पाँत के नाम पर। बचपन से लेकर आज तक के जीवन में कई बच्चों को बड़ा होते देखा और कई बड़ों को बूढ़ा होते देखा, बीमार होते भी देखा और बेजार होते भी देखा। शारीरिक विकृति तो दिख जाती है हर किसी की पर मानसिक विकृति की छुपी हुई गंदगी नहीं दिखती जो कब बाहर आ जाए पता नहीं चल पाता।
उनका काम ही ऐसा था। दुकान ही नहीं कही जाती थी वह, उसे तो कसाई की दुकान कहा जाता था। गोश्त बेचने वालों के लिये यही तो नाम था इलाके में। जब हरा-भरा गाँव था तब सारे शाकाहारी घर वाले उनके घर से दूर ही रहते थे क्योंकि जो शाकाहारी हो उसे तो माँस-गोश्त देखने से ही उबकाई आ जाती है। उन्हें इस बात से हमेशा तकलीफ होती थी, लोग ऐसे रहते थे उनके साथ जैसे वे दुनिया के सबसे बड़े अछूत हों। अगर कोई माँस-गोश्त नहीं खाता है तो न खाए पर लोगों के खाने को देखकर मुँह तो न बनाए। यह बात शौकी चाचा को बहुत खलती थी। इसमें उनका क्या दोष है वे भी और इंसानों की तरह ही इंसान हैं फिर क्यों उनसे ऐसा व्यवहार किया जाता है। उनमें भी आम इंसानों की तरह भावनाएँ थीं हमेशा उन भावनाओं का मजाक बनता जब-जब उन्हें उनके नाम “शौकत अली” से नहीं “कसाई शौकत” कहकर पुकारा जाता था।
खैर, हर साल एक-एक करके वहाँ रहने वाले परिवार शहर की ओर जाने लगे। जाने वाले तो चले जाते पर जो रहते उनके मन में भी गाँव छोड़ने की इच्छा जगा जाते। उनकी देखा-देखी कई परिवार थे जो धीरे-धीरे, सालों के अंतराल में गाँव छोड़ कर चले गए थे। वहाँ उस गाँव में रखा ही क्या था। कुछ कच्चे-पक्के मकान और कुछ दुकानें। अब तो अधिकतर बस्ती में वे घर रह गए थे जो माँस-मट्टी ही खाते थे और शहर जाकर माँस बेचकर गुजारा करते थे।
कुछ सालों पहले तक शौकी चाचा के घर के सामने एक कट्टर शाकाहारी परिवार रहता था। जिनका लिहाज पालकर चाचा अपना गोश्त का धंधा उनकी नज़र से परे पीछे के दरवाजे से करते थे। चाचा की इस बात का उस परिवार ने बहुत सम्मान किया था। इधर वे अपनी अम्मी –अब्बू के इकलौते बेटे थे व उधर उस परिवार की एक इकलौती बेटी थी। जिसके पीछे कभी वे थे, मन ही मन उसे चाहने लगे थे। उसको एक नज़र भर देखने के लिये नज़रें खिड़की पर लगी रहती थीं। बहुत पसंद थी वह चुलबुली लड़की उन्हें। वह भी कभी-कभी उन्हें देख लिया करती थी। पर करते क्या, थे तो कसाई के बेटे। अपनी दिली चाहत भी अपने क्रूर काम के नीचे दब गयी थी।
वे लोग भी सालों पहले शहर चले गए थे। उनकी प्रेम कहानी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गयी थी। अब गाँव में सारे माँसाहारी ही बचे थे। उनकी दुकान बेधड़क चलती। पीछे के दरवाजे से नहीं आगे के दरवाजे से। उनके सामने रहने के लिये भी कसाइयों का एक कुनबा आ गया था। सो, अब शौकी चाचा बेखौफ़ अपने अंदाज़ में रहने लगे थे। अब वे अपने बिन्दास स्वभाव को छुपाते नहीं थे। इतना जोर से बोलते थे कि रात-बिरात में करवट भी बदलते तो आवाज़ आ जाती थी। खाना खाकर उठते तो डकार इतनी जोर से लेते कि पता लग जाता कि मियाँ ने डिनर कर लिया है। एक अच्छी बात यह थी कि अजान की आवाज नहीं आती थी बस। क्योंकि वे खुद जानते थे कि अपनी प्रार्थना को अपने तक रखना ही अच्छा रहता है। पूजा-प्रार्थना शांति से करना चाहिये चिल्ला-चिल्ला कर नहीं। जब गाँव में बहुत बस्ती थी और लोगों ने इस तरह यहाँ से पलायन नहीं किया था तब की चहल-पहल में आसपास के मंदिरों की घंटियाँ घनन-घनन बजतीं तो वे अपनो कानों में रुई लगा लेते थे।
लेकिन वे दिन भी रहे नहीं क्योंकि भगवान के मंदिर को बंद करके पुजारी कब से जा चुके थे। अब उनके भगवान एक खंडहर में थे, अकेले और मौन। कोई घंटी नहीं, कोई मंत्र नहीं। कोई दीपक नहीं, कोई प्रसाद नहीं। शौकी चाचा एक अकेले ही ऐसे व्यक्ति थे जिनके पास सालों का हिसाब-किताब था। उनका काम तो चल रहा था पर उनके खुद के बच्चे भी उन्हें छोड़ कर चले गए थे।
कभी-कभी कुछ छात्र या फिर टीवी वाले आ जाते इस गाँव का हालचाल पूछने। कोई डाक्यूमेंटरी बनाता तो तो कोई अपनी रिसर्च करता। न जाने ऐसा था क्या इस गाँव में कि कोई रहना नहीं चाहता था बस इसके बारे में लिखना और फिल्म बनाना चाहता था।
एक दिन बेमौसम की बरसात ने इलाके को पानी से भर दिया। जहाँ देखो वहाँ पानी ही पानी था। प्रकृति का प्रकोप कब कहर बरपा दे कुछ पता नहीं चल सकता। यूँ तो इलाके में सूखे की समस्या थी लेकिन जिस साल पानी अच्छा गिरता था तो इतना गिरता था कि सब कुछ बहा ले जाता था।
उस दिन रिमझिम बारिश के रुकते ही जब सूरज निकला तो चाचा अपने घर के अहाते में ही खाट पर दोपहर की झपकी ले रहे थे तभी एक गाड़ी आकर रुकी। एक मोहतर्मा थीं जो अपने आधे चेहरे को धूप के काले चश्मे से ढँके हुई थीं मानों सूरज का कहर उनके चेहरे पर ही हो रहा हो। बेखबर सूरज अपनी सारी रौशनी भी उधर ही डाल रहा था, चमकती, खिलखिलाती त्वचा के ऊपर अपनी किरणों को थामने का सुख भला क्यों छोड़ता। उनके चेहरे को देखना भी एक सुकून था इस भर-दोपहर में। लगतीं तो अधेड़ थीं पर बेहद सौम्य एवं आकर्षक व्यक्तित्व था। वे एकटक देख रही थीं, बगैर कुछ बोले, आखिर चाचा को बोलना ही पड़ा – “सलाम, जी कहिए, किसे ढूँढ रही हैं आप?”
“शौकी, पहचाना नहीं मुझे?”
शौकी कहने की हिम्मत यहाँ किसी की नहीं थी, यह महिला कैसे जानती हैं उनका नाम। यह कौन है और कहाँ से आयी है। आँखें मिचमिचा कर देखने लगे चाचा।
“मैं रजनी हूँ, पहचाना नहीं?”
चाचा बगैर बोले आँखें फाड़े देखते ही रहे तो वह बोली – “मैं रजिया हूँ, रजिया से पहचाना?”
“रजिया सुलतान को मरे तो सदियाँ हो गयीं पहचानूँ कैसे…”
“शौकी तुम अभी भी नहीं बदले, मैं तुम्हारे घर के सामने रहती थी, रजनी जिसे तुम कभी रजिया कहते थे तो कभी रज्जो कहते थे, कभी रजा कहते थे तो फिर कभी छुट्टी कह देते थे…”
चाचा मुँह फाड़े रह गये – “लेकिन तुम्हारी तो छुट्टी कब से हो गयी थी”
“मतलब?”
“मेरा मतलब शादी हो गयी थी।”
“हाँ, अब तो मेरे बच्चों के भी बच्चे हो गये हैं।”
“लो बताओ ऐसे में कैसे उम्मीद रखती हो कि हम तुम्हें पहचान जाएँ।”
“ठीक है अब भाव खाना छोड़ो।”
“छोड़ दिया” अपने मुँह में पान को दबाते बोले – “अब यह बताओ कि हमसे क्या चाहती हो। एक बात पहले ही बता देते हैं कि हम साठ पार कर चुके हैं, किसी आशिकी की उम्मीद मत रखना।”
“बूढ़ा गये हो मगर आशिकी से बाज नहीं आते।”
“बोल कर तो संतोष कर लें कम से कम, कहो क्या करें हम तुम्हारे लिये?”
“हमारे बड़े गुरू इस रास्ते से निकल रहे हैं। तुम्हें तो पता है कि वे संत हैं पैदल चलते हैं सुबह से शाम, लेकिन रात में कहीं न कहीं उन्हें रुकना होता है।”
“हाँ हाँ, पता है…”
“रात होने वाली है अगला गाँव दूर है। भयंकर बारिश के कारण सारे रास्ते बंद हो गये हैं। आसपास के किसी गाँव तक भी जाना संभव नहीं है। हम अटक गए हैं। और हमारे साथ हमारे संत हैं जो चल कर यहाँ तक पहुँच गए हैं पर आगे के सारे रास्ते बंद हैं। उनके रुकने की हम कोई व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं, उनके भोजन-आहार की कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही है।
“तो परेशानी क्या है, मेरा घर है यहाँ।”
“तुम तो माँस-मट्टी खाते हो तुम्हारे घर का वे कुछ नहीं खायेंगे।”
“माँस-गोश्त नहीं खिलाऊँगा उन्हें, दाल रोटी खिलाऊँगा।”
“लेकिन वे नहीं खायेंगे।”
“अब नहीं खायें तो भूखे रहें, उनकी इच्छा।”
“वे तैयार हैं मगर उनकी भी एक शर्त है।”
“यह कि मैं घर गंगाजल से धुलवा लूँ, अरे इसमें कौनसी बड़ी बात है। गंगाजल अगर घर को पवित्र कर देता है तो ठीक है। आज मेरा घर पवित्र हो जाएगा।”
“मैं उनसे बात करके आयी हूँ शौकी, उनकी एक शर्त है।”
“शर्त, अब यह मत कहना कि मैं अपना धर्म छोड़ कर उनके साथ हो जाऊँ, हाँ सालों पहले कहती तो मैं तुम्हारे लिये यह सब कर लेता।”
“मजाक नहीं शौकी, उनकी एक शर्त यह है कि अगर तुम जीवन भर के लिये गोश्त खाना छोड़ दो।”
“यह कैसी शर्त है, शमा से कहते हैं कि जलना ही छोड़ दो। गोश्त के बगैर मैं कैसे जी सकता हूँ रजा, मेरी खुराक ही नहीं है यह तो मेरा धंधा भी है।”
“खुराक बदल सकते हो तो आज वे तुम्हारे घर रुकने को तैयार हैं। मेरी इतनी सी बात को तुम्हें मानना ही होगा शौकी।”
“यह अन्याय है, कैसा वादा ले रही हैं आप रजिया बेगम?”
“सोच लो अच्छी तरह, शाम होने वाली है, ज्यादा समय नहीं है हमारे पास।”
“गलत है यह, एक तो मेरी रज्जो को भेजा है, दूसरा मेरा गोश्त बंद कर रहे हैं। लाहौल विला कूव्वत! मेरी सारी कमजोरियों का फायदा उठा रहे हैं।”
शौकी चाचा के दिमाग में तेजी से कुछ चल रहा था। जीवन बचा ही कितना है, जब से होश संभाला है हर दिन गोश्त खाया है। बचे हुए दिन ऐसे ही निकाल लूँगा। अपना बुढ़ापा कट जाए इतना तो है मेरे पास लेकिन और कोई काम करने को नहीं मिला तो, करेंगे क्या उम्र भर? सवाल तो हज़ारों थे पर अभी सिर्फ एक सवाल सामने था वह यह कि क्या वे संत को बुला लें अपने घर, बाकी सब सवालों से निपटते रहेंगे।
“सोच लो शौकी, एक दिन की बात नहीं है यह, जीवन भर रह पाओगे बगैर गोश्त के?”
“हूँ” सोचते रहे पर अधिक समय नहीं लिया। आज जीवन में पहली बार किसी की एक शर्त पर फैसला लेना था वह भी अपनी रज्जो के कहने पर। बहुत कुछ आया और गया जीवन में पर केवल एक आदमी की मेहमान नवाजी करने के लिये उनसे उनके जीवन भर की पहचान छीन ली जाएगी। अपनी तो निकल गयी अब एक नया जीवन जीकर देख लेंगे। नया काम भी ढूँढो और नया खाना भी, शौकत अली। इस संत के कदम मेरे घर में पड़ेंगे तो शायद कसाईपन से मुक्ति मिल जाए। अब उनके घर के फर्श पर खून की लालिमा नहीं होगी। सालों से कसाई कलेजे के साथ जी रहे थे, मरते-मरते उससे मुक्ति मिलेगी। बचे हुए दिनों के लिये यह कसाई भी इंसान कहलाएगा। चाचा ने “हाँ” कर दी।
घर की खूब सफाइयाँ की गयीं। कई लड़के लगा दिये पूरे घर को साबुन के पानी से धुलवाने में। अपने फर्श की ज़ालिमता से संत के पैरों को बचाने के लिये पास वाले धोबी से सफेद चादरें लेकर बिछवा दीं। मेहरुन्निसा से कहकर एक दाल, एक साग, चावल और गरम-गरम रोटी का इंतज़ाम किया। हज़ार हिदायतें दी गयीं सबको कि हर चीज़ शुद्ध और सात्विक हो। उन्होंने खड़े रहकर सारा इंतज़ाम किया। एक ऐसा मौका था यह जो शौकी चाचा के जीवन का रुख बदल रहा था पर वे खुश थे अपने निर्णय पर।
जय-जयकार के बीच संत को आसरा मिला चाचा के घर। उनकी शर्त पूरी हुई। अंदर कहीं ऐसा महसूस हो रहा था कि रज्जो ने उनके घर को एक खास इज्ज़त दिलवा दी है। सदा के लिये मन में संजोकर रखने जैसी याद थी यह।
वह दिन और आज का दिन, फिर कभी न वे संत मिले, न कभी रज्जो मिली। शौकी चाचा अभी भी जीवित हैं। कई बार मन ललचाया गोश्त खाने के लिये। कई बार यह विचार आया कि संत आए और गए अब उनके उस वचन से बंधे रहने का फायदा भी क्या पर बस सोचते ही रह गए। कभी उनके हाथ नहीं बढ़े गोश्त की ओर।
एक बार तो एक जलसा था गाँव में सारे चिकन पर ऐसे टूट पड़े थे जैसे कि कभी ऐसा खाना देखा न हो। शौकी चाचा के सामने हड्डी को चूस-चूस कर खा रहे थे। उस दिन सबने उन्हें बहुत मनाया कि “खा लो चाचा, कोई नहीं देख रहा।”
“सिर्फ आज खा लो” लेकिन उनका मन नहीं माना। ऐसा हो गया था मन कि उस तरफ देखने की भी इच्छा नहीं हो रही थी जिधर वे सारे लोग बड़े चाव से चिकन खा रहे थे।
और फिर खाना और बेचना तो दूर ताउम्र गोश्त को छुआ भी नहीं, एक बार किसी को वचन दिया तो दिया। उम्र भर गोश्त से अपनी जीविका और जीवन चलाने वाले के लिये उससे दूर रहना एक महान संत के धैर्य जैसा था। संतों जैसी कोई प्रवृत्ति नहीं पर किसी संत से बहुत ऊपर। न जाने दोनों में बड़ा संत कौन था एक घोषित संत था और दूसरा अघोषित संत, बिल्कुल एक इलायची की तरह मानवीयता की खुशबू से ओतप्रोत, अंतर्मन के हर दाने में भी और बाहरी छिलके में भी।
[कथादेश, अक्तूबर 2020 में प्रकाशित]
Recent Comments